Monday 5 September 2016

समाधि-चित्त की एकाग्रता

आचार्य जुगल किशोर बौद्ध

चार आर्य-सत्यों का चतुर्थ आर्य-सत्य आष्टांगिक मार्ग का दूसरा भाग है ‘समाधि। इस समाधि के तीन अंग हैं- 1 . सम्मा वायामो (=सम्यक व्यायाम), 2. सम्मा सति (=सम्यक स्मृति) और 3. सम्मा-समाधि (=सम्यक समाधि)।

सम्यक व्यायाम
सम्यक व्यायाम को सम्यक-प्रयत्न भी कहते हैं जो चार हैं- 1. संयम-प्रयत्न, 2. प्रहाण-प्रयत्न, 3. भावना-प्रयत्न और 4. अनुरक्षण-प्रयत्न। इन चारों प्रयत्नों से क्रमशः अभिप्राय है- 1. अनुत्पन्न अकुशल, पापमय-धर्मों, विचारों को जो अभी मन में नहीं हैं, उन्हें उत्पन्न न होने देने के लिए प्रयत्न, 2. अकुशल, पापमय-धर्मों, विचारों को जो मन में उत्पन्न हो गए हैं, उन्हें दूर करने, नष्ट करने के लिए प्रयत्न करना, परिश्रम करना, 3. अनुत्पन्न कुशल-धर्मों विचारों को जो मन में नहीं आए हंै, उनके उत्पाद (उत्पन्न करने) के लिए प्रयत्न करना और 4. उत्पन्न कुशल-धर्मों, विचारों को जो मन में हैं, उनके अनुरक्षण और बार-बार उत्पाद के लिए प्रयत्न करना, परिश्रम करना।

साधक अपनी इंद्रियों-आँख, कान, नाक, जीभ, काय, मन से उत्पन्न होने वाले विषयों-रूप, शब्द, गंध, रस, स्पर्श तथा मन के विषय में आसक्त होने से दूर रहता है और अपने चित्त (=मन) को संयत करता है, मन को सबल बनाता है।

यदि मन में काम-भोग की इच्छा, क्रोध, हिंसक विचार, राग, द्वेष, मोह जैसे अकुशल, पापमय विचार उत्पन्न होने लगें तो साधक उन विचारों को मन में प्रविष्ट नहीं होने देता, वह उनसे दूर रहता है। वह स्मृति (निरंतर जागरूकता), धर्म-विचय, वीय्र्य, प्रीति, प्रश्रब्धि, समाधि तथा उपेक्षा बोधि के इन सात अंगों का अभ्यास करता है जो एकांतवास तथा वीतराग होने से उत्पन्न होते हैं, जो निरोध से संबद्ध हैं और उत्सर्ग की ओर ले जाते हैं।
साधक संकल्प लेता है कि-‘‘चाहे मेरा माँस-रक्त सब सूख जाए और शेष रह जाएं केवल त्वक, नसें और हड्डियां, जब तक उसे जो किसी भी मनुष्य के प्रयत्न से, शक्ति से, पराक्रम से प्राप्य है, प्राप्त नहीं कर लूंगा, तब तक चैन नहीं लूंगा।
इसे सम्यक-प्रयत्न (=सम्यक-व्यायाम) कहते हैं।

सम्यक स्मृति
बुद्ध काल में स्मृति का जो अर्थ था वह समय के साथ-साथ बदलता गया है। आज जिस स्मृति को स्मरण या याद्दाश्त के अर्थ में लिया जाता है, उस स्मृति को भगवान बुद्ध के समय में प्रत्येक क्षण की जागरुकता, सावधानी, होश के रूप से समझा जाता था। आज भी विपस्सना साधना में इसका वही अर्थ है। जैसा है उसे वैसा ही सावधानी एवं जागरूकता से हर क्षण वर्तमान से देखना, इस क्षण की सच्चाई को जानना, स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना स्मृति है। एक भिक्खु या उपासक साधक काय (=शरीर) के प्रति जागरूक (=कायानुपश्यी) रहता है। वह प्रयत्नशील, ज्ञानयुक्त (=होशवाला) तथा लोक में जो लोभ और दौमर्नस्य है, उसे हटाकर विहरता है, वेदना के प्रति, चित्त के प्रति, धर्म (=मन के विषयों) के प्रति जागरूक, प्रयत्नवाला, ज्ञानयुक्त, होशवाला तथा लोक में जो लोभ और दौर्मनस्य (=चित्त संताप) है, उसे हटाकर विहरता है। वह काया की उत्पत्ति एवं विनाश को देखता विहरता है, लोक मंे किसी भी वस्तु को (मैं, मेरा करके) नहीं ग्रहण करता। वह कायानुपश्यी, चित्तानुपष्यी, वेदनानुपष्यी, धर्मानुपष्यी हो विहरता है। इस विषय पर विस्तृत जानकारी ‘चार प्रकार की विपस्सनाएँ शीर्षक अध्याय में आगे दी गई हैं।

सम्यक समाधि
राग, द्वेष तथा मोह से रहित चित्त की एकाग्रता ही सम्यक समाधि है। चारों स्मृति-उपस्थान (=चार प्रकार की विपस्सनाएँ) और चारों सम्यक-प्रयत्न (इसी अध्याय में सम्यक व्यायाम शीर्षक के नीचे) समाधि की सामग्री हैं। इन (आठों) धर्मों का सेवन करने, भावना करने और बढ़ाने का नाम ही समाधि भावना है।

हर क्षण अपने अंदर के सत्य को सम्यक स्मृति के साथ विकार रहित सच्चे आलंबन द्वारा जागरुकता के साथ देखते रहना सम्यक समाधि है। ऐसी जागरूकता का क्षण-क्षण बढ़कर सतत् जिस समय के रूप में मिलता है, वही सम्यक समाधि है।

समाधि करने वाला साधक चित्त से लोभ को दूर कर, चित्त से क्रोध को दूर कर, चित्त से आलस्य को दूर कर, चित्त से उद्धतपने तथा पछतावे को छोड़ और संशय को छोड़ विचरता है। वह सभी प्राणियों पर दया करता है। वह आलोकयुक्त चित्त, स्मृति तथा ज्ञान से युक्त हो विचरता है। वह कुशल धर्मों (=अच्छी एवं पुण्यमय बातें) के विषय में संदेह-रहित होता है। चित्त से संदेह को दूर करता है। वह चित्त के उपक्लेश, प्रज्ञा को दुर्बल करने वाले पाँच नीवरणों (बंधनों) को छोड़ता है।

पांच नीवरण इस प्रकार हैं-

1.    कामछंद-इंद्रियों के विषयों में अनुराग, लोभ-मोह, काम-वासना, व्याकुल होना।
2.    व्यापाद-हिंसा, द्वेष, घृणा करना।
3.    स्त्यान-मिद्ध-‘स्त्यान चित्त की अकर्मण्यता है और ‘मिद्ध है आलस्य, बेहोशी, निद्रा, तंद्रा।
4.    औद्धत्य-कौकृत्य-औद्धत्य का अर्थ है ‘अव्यवस्थित चित्तता और कौकृत्य ‘खेद, पश्चाताप को कहते हैं। पश्चाताप, बेचैनी, व्याकुलता, प्रक्षुब्ध होना।
5.    विचिकित्सा-संषय, संदेह, शंका को धारण करना। मुझसे नहीं होगा, मेरा मन नहीं लगता, ऐसा चित्त में उत्पन्न होना, अपनी क्षमता पर संदेह होना।

समाधि के मार्ग में ये पांचों बाधक हैं। ये हमारे शत्रु हैं। इनसे बचने पर ही समाधि प्राप्त हो सकती है, चित्त की सही एकाग्रता आ सकती है।

समाधि का शाब्दिक अर्थ है ‘समाधान, ‘समाहित चित्त, ‘कुशल चित्त की एकाग्रता। एक इष्ट आलम्बन में समान तथा सम्यक रूप से चित्त और चैतसिक धर्मों की प्रतिष्ठा। अतः ‘समाधि वह धर्म है जिसके प्रभाव से चित्त और चैतसिक धर्मों की एक आलंबन में बिना किसी विक्षेप के सम्यक स्थिति हो। समाधि में विक्षेप का विध्वंस होता है।

समाधि दो प्रकार की हैं- (1) लौकिक, (2) लोकोत्तर।

लौकिक समाधि-काम, रूप और अरूप भूमियों की कुशल चित्त की एकाग्रता को ‘लौकिक समाधि कहते हैं। इसके मार्ग को ‘शमथ-यान कहते हैं।

लोकोत्तर समाधि-प्रज्ञा की भावना को ‘लोकोत्तर समाधि कहते हैं। लोकोत्तर समाधि का मार्ग ‘विपस्सना-यान कहा जाता है।

जब विघ्नों का शमन, नाश हो जाता है तब चित्त की एकाग्रता होती है। शमथ का अर्थ है चित्त की एकाग्रता। समाहित चित्त एकाग्रता द्वारा प्राप्त होता है, वही समथ-चित्त (=शमथ-चित्त) है। विघ्नों के नाश से ही लौकिक समाधि में प्रथम ध्यान का लाभ होता है।

ध्यान के पाँच अंग हैंः
(1) वितर्क, (2) विचार, (3) प्रीति, (4) सुख, (5) एकाग्रता।

वितर्क चित्त को आलंबन में ले जाता है। आलंबन के पास चित्त का जाना ‘वितर्क कहलाता है। वितर्क की प्रथम उत्पत्ति के समय चित्त का परिस्पंदन होता है।

विचार वितर्क के बाद उत्पन्न होता है। विचार सूक्ष्म है। विचार की वृति शाँत है और इसमें चित्त का अधिक परिस्पंदन नहीं होता।

प्रीति उत्पन्न होती है, तब सबसे पहले शरीर में रोमांच उत्पन्न होता है। धीरे-धीरे यह प्रीति बार-बार शरीर को अवक्रांत (व्याप्त) करती है। प्रीति के परिपाक से काय-प्रश्रब्धि और चित्त-प्रश्रब्धि होती है।

प्रश्रब्धि शांति को कहते हैं। प्रश्रब्धि के परिपाक से काया-सुख और चित्त-सुख होता है। सुख के परिपाक से क्षणिक, उपचार और अर्पणा इस ़ित्रविध समाधि का परिपूर्ण होता है।

इष्ट आलंबन के प्रतिलाभ से जो तुष्टि होती है, उसे ‘प्रीति कहते हैं। जहाँ प्रीति है वहाँ सुख है; पर जहाँ सुख है वहाँ प्रीति नियम से नहीं है। प्रथम ध्यान में उक्त पाँच अंगों का प्रादुर्भाव होता है। धीरे-धीरे अंगांे का अतिक्रमण होता है। अंतिम ध्यान, समाधि उपेक्षा-सहित (समता सहित) होता है।

वितर्क, विचार, प्रीति, सुख एवं एकाग्रता नाम के ये पांच चैतसिक (=जो चित्त में रहते हंै) पृथक-पृथक ध्यान के अंग हैं। इन पांचों के समुच्चय को ‘ध्यान कहा जाता है। इस ध्यान से संप्रयुक्त चित्त ‘ध्यानचित्त कहलाता है।

प्रथम ध्यान-वितर्क, विचार, प्रीति, सुख एवं एकाग्रता नामक पाँच ध्यानअंग सहित प्रथम ध्यान कुशलचित्त है।

द्वितीय ध्यान-इसमें वितर्क का अतिक्रमण हो जाता है और शेष चार अंग रहते हैं।

तृतीय ध्यान-इसमें वितर्क और विचार का अतिक्रमण हो जाता है और शेष तीन अंग रहते हैं।

चतुर्थ ध्यान-इसमें वितर्क, विचार, प्रीति का अतिक्रमण होता है और शेष सुख एवं एकाग्रता अंग रहते हैं।

पंचम ध्यान-शेष एकाग्रता ही रहती है, इसके साथ उपेक्षा अंग भी होता है। यह पंचम ध्यान कुशल चित्त है।

इसे सरल रूप में हम इस प्रकार जानते हैं जैसा भगवान कहते हैं-
भिक्खुओं! प्रथम-ध्यान में पांच बातें नहीं रहती हैं और पांच रहती हैं। भिक्खुओ! जो भिक्खु प्रथम ध्यान की अवस्था में होता है, उसकी कामुकता विनष्ट रहती है, क्रोध विनष्ट रहता है, आलस्य विनष्ट रहता है। उद्धतपन और पछतावा विनष्ट रहता है, संशय विनष्ट रहता है। वितर्क रहता है,  विचार रहता है, प्रीति रहती है, सुख रहता है और रहती है चित्त की एकाग्रता।

और भिक्खुओ! भिक्खु वितर्क और विचारों के उपशमन के अंदर की प्रसन्नता और एकाग्रता रूपी द्वितीय ध्यान को प्राप्त होता है, जिससे न वितर्क होते हैं, न विचार; जो समाधि से उत्पन्न होता है और जिसमें प्रीति तथा सुख रहते हैं।

और फिर भिक्खुओ! भिक्खु प्रीति से भी विरक्त हो उपेक्षावान बन विचरता है। वह स्मृतिवान, ज्ञानवान होता है और शरीर से सुख का अनुभव करता है। वह तृतीय ध्यान को प्राप्त करता है, जिसे पंडित-जन उपेक्षावान, स्मृतिवान, सुखपूर्वक विहार करने वाला कहते हैं।

और फिर भिक्खुओ! भिक्खु सुख और दुख-दोनों के प्रहाण से सौमनस्य और दौर्मनस्य से पहले ही अस्त हुए रहने से (उत्पन्न) चतुर्थ ध्यान को प्राप्त करता है, जिसमें न दुख होता है, न सुख होता है और होती है (केवल) उपेक्षा तथा स्मृति की परिशुद्धि।

भिक्खुओ! भिक्खु प्रथम ध्यान...द्वितीय ध्यान...तृतीय ध्यान तथा चतुर्थ ध्यान...को प्राप्त कर विचरता है। वह रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान सभी धर्मों को अनित्य समझता है, दुख समझता है, रोग समझता है, फोड़ा समझता है, शल्य समझता है, पाप समझता है, पीड़ा समझता है, नष्ट होने वाला समझता है, शून्य समझता है और समझना है अनात्म। वह (अपने) मन को उन धर्मों (विषयों) की ओर जाने से रोकता है। अपने मन को उन धर्मों की ओर जाने से रोककर वह उस अमत-तत्व की ओर ले जाता है जो ‘‘शांत है, श्रेष्ठ है, सभी संस्कारों का शमन है, सभी चित्तमलों का त्याग है, तृष्णा का क्षय है, विराग-स्वरूप तथा विरोध-स्वरुप निर्वाण है।’’ वहां पहुंचने से उसके आस्रवों (=मैलों) का क्षय हो जाता है। और यदि आस्रव-क्षय नहीं भी होता, तो उसी धर्म-पे्रम के प्रताप से पहले पांच बंधनों का नाश कर अयोनिज2 देवयोनि पें उत्पन्न (=औपपातिक) होता है। वहीं उसका निर्वाण होता है-फिर उस लोक से लौटकर संसार में नहीं आता।

भिक्खु हर प्रकार से, सारे लोक के प्रति विपुल मैत्री-चित्त वाला, करूणापूर्ण चित्त वाला, मुदितायुक्त चित्त वाला, उपेक्षायुक्त चित्त वाला हो विहरता है। वह सब रूपसंज्ञाओं को पारकर प्रतिघ-संज्ञाओं को अस्तकर, नानत्व संज्ञाओं को मन से निकाल ‘आकाश अंनत है करके आकाशानन्त्यायतन को प्राप्त हो विहरता है। ‘ आकाशानन्त्यायतन को पार कर ‘‘कुछ नहीं है करके अकिञ्चन्यायतन को प्राप्त हो विहरता है। जो वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान है, वह उन सभी धर्मों को अनित्य समझता है, दुख समझता है, रोग समझता है, फोड़ा समझता है, शल्य समझता है, पाप समझता है, पीड़ा समझता है, नष्ट होने वाला समझता है, शून्य समझता है और समझता है अनात्म। यह अपने मन को उन धर्मों की ओर जाने से रोक कर, उस अमृत-तत्व की ओर ले जाता है जो कि ‘शांत है, श्रेष्ठ है, सभी संस्कारों का शमन है, सभी चित्तमलों का त्याग है, तृष्णा का क्षय है, विराग-स्वरुप तथा निरोध स्वरूप निर्वाण है।’’ वहां पहुंचने से उसके आस्रवों (=मलों) का क्षय हो जाता है।

सभी ‘आकिञ्चन्यायतनों को पार कर ‘नेव संज्ञा-न-संज्ञा-आयतन को प्राप्त हो विहरता है। सभी ‘नेवसंज्ञा न असंज्ञा-आयतन को पार कर संज्ञा की अनुभूति के निरोध को प्राप्त कर विहरता है।

भिक्खु जब भव न विभव किसी के लिए भी न प्रयत्न करता है, न इच्छा करता है, तो वह लोक मंे (मैं, मेरा करके) कुछ भी ग्रहण नहीं करता। जब कुछ ग्रहण नहीं करता तो उसको परिताप भी नहीं होता। जब परिताप नहीं होता तो वह अपने ही आप (स्वयं) निर्वाण पाता है। उसको ऐसा होता है कि जन्म-(मरण) जाता रहा, व्रह्मचर्यवास (का उद्देश्य पूरा) हो गया, जो करना था कर लिया, अब यहां करने के लिए शेष कुछ भी नहीं रहा।

वह सुख-वेदना, दुख-वेदना, असुख-अदुख वेदना को अनुभव करता है। वह उस वेदना को अनित्य समझता है, अनासक्त रहकर ग्रहण करता है, उसका अभिनंदन नहीं करता; वह उसका अनुभव अलग ही रहकर करता है। वह समझता है कि शरीर छूटने पर, मरने के बाद, जीवन से परे अनासक्त रहकर अनुभव की गई ये वेदनाएं ठंडी पड़ जाएंगी।

जिस प्रकार तेल के रहने से, बत्ती के रहने से दीपक जलता है और उस तेल तथा बत्ती के समाप्त हो जाने तथा दूसरी (नई तेल-बत्ती) के न रहने से दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार, शरीर छूटने पर, मरने के बाद, जीवन के परे, अनासक्त रहकर अनुभव की गई वे वेदनाएं, यहीं ठंडी पड़ जाती हैं।

समाधि से लाभ
समाधि अर्थात सम्यक समाधि से चित्त की एकाग्रता की उपलब्धि होती है, जिससे चित्त को संयत, वश में किया जा सकता है। चंचल होने के कारण चित्त का विकारयुक्त होना स्वाभाविक है, यह इसका सहज स्वभाव है। चित्त जंगली प्राणी की तरह उच्छृंखल रहता है। जैसे जंगली हाथी या जंगली भैंसे को पालतू बनाने पर मनुष्य के कामों में उसकी सब शक्ति उपयोग में आती है, वैसे ही, चित्त को एकाग्र करके वश में किया जा सकता है और वश में किए गए चित्त से अपरिमित शक्ति अपने काम में लाना संभव हो सकता है। इस प्रकार चित्त की एकाग्रता ही समाधि है। इससे ही चित्त-शुद्धि प्राप्त हो सकती है।

सारांश में-‘‘कुशल चित्त की एकाग्रता ही समाधि है। समाधान के अर्थ में समाधि है। यह समाधान क्या है? एक आलंबन में चित्त-चैतसिकों का बराबर और भली-भांति प्रतिष्ठित होना; रखना कहा गया है। इसलिए जिस घर्म के अनुभाव से एक आलंबन में चित्त-चैत्तसिक बराबर और भली-भांति विक्षेप और विप्रकीर्ण हुए बिना ठहरते हैं-इसे समाधि जानना चाहिए।

विक्षेप न होना समाधि का लक्षण है। विक्षेप को मिटाना इसका रस (=कृत्य) है। विकम्पित न होना प्रत्युपस्थान (=जानने का आकार) है। सुखी का चित्त एकाग्र होता है, वचन से सुख इसका पदस्थान है।

चित्त का अर्थ है मन, विज्ञान। जो चित में रहते हंैं वे ‘चैतसिक और चैतसिकों का जिसके साथ उत्पाद और निरोध होता है वह चित्त है। यूं चित्त कहते उसे ही है जिसमें चैतसिक रहते हैं। किंतु क्योंकि बिना चित्त के कहीं चैतसिक देखने में नहीं आते और बिना चैतसिकों के कहीं प्रवत्त-चित्त देखने में नहीं आता, इसलिए चित्त और चैतसिकों के बीच में भी कोई पार्थक्य (पृथकता) की रेखा खींचना सहज नहीं। चित्त ‘वस्तु स्वरुप नहीं है, वह अनेक मानसिक क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं का बोध कराने वाला एक शब्द है। चित्त की क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं ऐसी हैं जो ऐसे चित्तों में ही उत्पन्न होकर निरुद्ध होती हैं, जो चित्त काम-लोक में ही रमण करते हैं। ऐसे चित्त कामावचर (-लोक) के चित्त कहलाते हैं। इसी प्रकार रूपावचर, अरूपावचर तथा लोकोत्तर चित्त भी होते हैं। जिस प्रकार चित्त के संभव रूपों का विश्लेषण करने पर उनकी गिनती 89 या 121 पर समाप्त की गई है, उसी प्रकार चैतसिकों का भी पृथक विचार कर उन्हें 52 माना गया है। उनमें सात चैत्तसिक ऐसे हैं, जो सभी चित्तों में विद्यमान रहते हैं कुछ ऐसे हैं जो कुशल (=शुभ) चित्तों में ही रहते हंै, कुछ ऐसे हैं जो अकुशल (=अशुभ) चित्तों में ही रहते हैं तथा शेष ऐसे हंै जो अपने-अपने नियम के अनुसार कहीं रहते हंै, कहीं नहीं रहते हैं।

1.    राठी लक्ष्मी नारायण, दुखमुक्ति की
साधना, श्री जगन्नाथ राठी चैरिटी ट्रस्ट, पुणे 1984, पृ.115
2. जो योनि से उत्पन्न नहीं होते।

The article is republished from the book Vipassana written by Acharya Jugal Kishore Baudh with permission from the publisher, Samyak Prakashan.

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