बोधिसत्व आदर्श एक विस्तृत
विषय है। यह बौद्ध धम्म के विकास की एक उत्कृष्ट सम्पदा है जिसे महायान कहा जाता है, जो 500 वर्षों से विकसित हुआ किन्तु इसका आज भी अभ्यास किया जा रहा है, भिन्न-भिन्न रूपों में तिब्बत परंपरा से जेन परंपरा तक इस पर विचार करना बौद्ध धम्म के हृदय की धड़कन सुनने जैसा है। बोधिसत्व आदर्श में दो शब्द का मेल है। बोधिसत्व शब्द में बोधि का अर्थ है, ‘ज्ञान’ महाज्ञान के अर्थ में, आध्यात्मिक ज्ञान, सत्य का ज्ञान, इसका अर्थ जाग्रति भी है परम सत्य के प्रति, भेद कर अस्तित्व के हृदय तक बोधि का अक्सर अनुभव किया जाता है ‘प्रबोधन’ (Enlightenment), जो कि एक अन्तरिम
अनुभव के रूप में काफी है, बशर्ते कि हम उसे अठठारहवीं सदी के तर्क बुद्धिपूरक (rationalistic) अर्थ में न लेकर उसे पूर्णत: आध्यात्मिक या फिर उदात्त (Transcendental) अर्थ में लें। बोधि उच्चतम या महान आध्यात्मिक ज्ञान है, बौद्ध जीवन का अंतिम लक्ष्य।
बोधिसत्व का अर्थबोध
एवं उगम
सत्व का अर्थ एक प्राणी जो अनिवार्यता मनुष्य न होकर पशु या कीट भी हो सकता है। अतः बोधिसत्व एक प्रबुद्ध प्राणी है एक ‘जागृति का प्राणी’ एक प्राणी जिसका सारा जीवन, सारी ऊर्जा समर्पित है प्रबोधन (बोधि) प्राप्ति में। कुछ संस्थाओं का कहना है पाली शब्द ‘बोधिसत्ता’ को संस्कृत में रूपांतरित कर ‘बोधिसक्त’ बनाना चाहिए था। अर्थात वह जो प्रयासरत हो बुद्धत्व की ओर। परंतु अंततः सहमति का जो शब्द बना वह था बोधिसत्व, जिस ‘सत्व’ का साधारण अर्थ प्राणी है। उदाहरण के लिये ‘सर्वसत्व’ कहने का अर्थ यह नहीं है की सभी प्राणिआंे में नायक (hero
) का गुण है,
जिस अर्थ से
संबंध ‘सक्त’ था। अंत
में यही कहना
होगा कि यह
आदर्श नायकों का
आदर्श है।
बोधिसत्व एक उत्तम
प्राणी है।
यह कहना कि बोधिसत्व एक प्राणी है जिसका जीवन पूर्ण रूप में बोधि प्राप्ति हेतु समर्पित है, यह कहने के बराबर है कि बोधिसत्व एक आदर्श बौद्ध है। आदर्श तो यह है कि एक बौद्ध बुद्ध की शिक्षाओं का पालन करते हुये बोधि (Enlightenment) का बोध करे जैसा बुद्ध ने किया। उसी तरह बोधिसत्व आदर्श आत्म-परिवर्तन का आदर्श है। प्रबोध रहित से प्रबुद्ध मानव की परिभाषा के अनुसार ‘बोधिसत्व’ कुछ और अधिक भी है। बोधिसत्व वह है जो अपनी बोधि के लिये ही प्रयासरत नहीं है अपितु सभी प्राणिओं को उसी स्थिति पर ले जाने के लिये संकल्पित है।
पालि साहित्य एवं महायान
बौद्ध धम्म में
बोधिसत्व आदर्ष की अवधारणा
यह एक विचित्र
बात है कि बोधिसत्व आदर्श की शिक्षा के पहले के उल्लेखों में इतने थोड़े से ऐसे हैं जिनमें स्पष्ट कहा गया है कि आध्यात्मिक जीवन का लक्ष्य है सभी प्राणियों की सेवा के लिये बोधि (Enlightenment) प्राप्त
करना। पालि वाङरूगमय में कुछ वक्तव्य इस सबंध में है। उदाहरण के लिये अंगुत्तर निकाय में भगवान बुद्ध चार प्रकार के लोगों के विषय में बता रहे हैं, वो जो न अपनी सहायता करें न दूसरों की, वह जो दूसरों की सहायता करते हैं अपनी नहीं या जो अपनी सहायता करते हैं दूसरों की नहीं या जो लोग अपनी सहायता के साथ-साथ दूसरों की और अन्य सभी की सहायता करते हैं। स्पष्ट है किं यह बोधिसत्व आदर्श के क्षेत्र की बात है। विनयपिटक के ‘महावग्ग’ में भगवान बुद्ध प्रथम साठ अरहतों को प्रवचन देते हुए कहते हैं, “भिक्षुओं जाओ, जाओ बहुतों (लोगों) की भलाई के लिये, बहुतों के कल्याण के लिये, मेरी शिक्षाओं को प्रसारित करो, जो आदि में, मध्य में, व अंत मे भी कल्याणकारी है, इस प्रकार से करुणावश यहाँ अन्य लोगों पर जो ध्यान दिया गया है, वह स्पष्ट है।
अतः परोपकारवाद का सिद्धांत पालि वाङरूगमय में निश्चय ही विद्यमान है। यह संभव है कि पालि त्रिपिटक में कुछ छूट गया हो और बाद में लेखन में उसे डाल दिया गया हो (जैसे कि कुछ महायान के सूत्र), जिसमें करुणा और दूसरों की भलाई पर बहुत बल दिया गया है। कुल मिलाकर पालि वाङरूगमय को देखो तो ऐसा नहीं लगता कि मूल बौद्ध आदर्श केवल अपनी ही मुक्ति का था। हम कल्पना कर सकते हैं कि बुद्ध के समय में इसे बहुत स्पष्टता से कहने की आवश्यकता नहीं महसूस की गई होगी। यदि हम स्वयं भगवान बुद्ध का उदाहरण लें तो स्पष्ट है कि परहित की भावना का पहलू आध्यात्मिक जीवन में था। बाद में स्वहित का पहलू प्रबल हो गया जिसके लिये एक विपरीत बल की आवश्यकता दिखाई दी। इसको समझने के लिए कि यह कैसे हुआ, और यह क्यों आवश्यक हो गया, कि ऐसी बोधि को प्रोत्साहित किया जाए जो ‘सर्वजनहिताय’ हो। हमें बौद्धमत के मूल (origin) पर ध्यान देना होगा। और मानव स्वभाव के कुछ आधारों पर ध्यान देना होगा।
अक्सर एक व्यक्ति
क्या है और क्या करता है, और वह क्या कहता या लिखता है, के बीच स्पष्ट अंतर होता है। उदाहरण के लिए एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण हो सकता है, प्रेम के विषय पर एक पूरी किताब लिख डाले, जिसमें इसके सभी पहलुओं पर उत्तम सुझाव हों। हो सकता है स्वयं ऐसा व्यक्ति अपने जीवन में प्रेम से पूर्णतः वंचित हो। दूसरी तरह ऐसे लोग होते है जो वास्तविक जीवन में कारुणिक, प्रेमपूर्ण व्यवहार के होते है, पर वे इसका विश्लेषण नहीं कर पाते, या इस पर कुछ भी लिख नहीं सकते। हम कल्पना कर सकते है दों वृत्तों (circles) की जिसमें एक बड़ा वृत्त जो कि हमारे शब्द हंै और उसी केंद्र पर एक छोटा वृत्त जो हम स्वयं हैं। ध्येय है कि दोनों वृत्त बराबर हो जाएँ। यदि हमारे शब्द हमारी असलियत से बिल्कुल
मेल न खाते हों तो लोगों को पता चल जाता है इस हकीकत का। जैसे शब्द वैसे ही होने में अंतर उच्चतम स्तर तक लागू होता है। हम ऐसा वक्तव्य देते हैं कि भगवान बुद्ध पूर्णतः बोधि प्राप्त थे या हैं, परंतु अच्छी तरह समझते हम शायद ही हांे कि हम क्या कह रहे हैं। हम पढ़ते हंै एक बुद्ध सत्य को जानता है, वह करुणावान, प्रज्ञावान आदि होता है, परंतु यह सब शब्द ही हैं। सचमुच, यदि हमारा सामना किसी प्रबुद्ध व्यक्ति से हो जाए तो शायद ही हम जान पाएँ कि वह प्रबुद्ध था या थी।
एक बुद्ध का आंतरिक अनुभव मुख्यतः
अभिव्यक्त होता है इसमें कि वह क्या है और क्या करता है, तथा वह क्या कहता है, गौण होता है। जबकि बुद्ध ने जो कुछ भी कहा उसका विस्तृत लेखा (record) उपलब्ध है फिर भी उनके शब्दों की बिल्कुल
सही आवृत्ति पूरी तरह बताने में असमर्थ है कि वे क्या थे। पालि ग्रन्थों में ऐसी घटनाओं की जानकारी मिलती है। हम देखते हैं कि वह भिक्षाटन के लिये जा रहंे हंै और कोई उन्हें मिलता है और प्रश्न पूछता है। उत्तर में वह कुछ संक्षेप में कह कर आगे बड़ जाते हैं। कहे शब्द बड़े साधारण होते हंै। परंतु यह आश्चर्यजनक बात है कि उन शब्दों को सुनकर सुनने वाला व्यक्ति प्रबुद्ध (enlightened) हो जाता है।
दूसरे लोगांे का होना
हम पर असर
करता है, एक
व्यक्ति से दूसरे
व्यक्ति के रुप
में। हमारे मन
में एक तरह
की छवि बन
जाती है जिससे
हम वार्तालाप करने
जा रहें हैं
या जिसे हम
देखने वाले हैं।
इसी प्रकार भगवान
बुद्ध का असर
भी है यदि
उस व्यक्ति में
ग्रहनशीलता हो। बुद्ध
अपना व्यक्तित्व हमारे
पर थोप नहीं
सकते यह एक
सहयोग का तत्व
आवश्यक है। इस
प्रकार से असर
से मनःस्थिति प्रभावित
हो सकती आवश्यक
है जो चीजों
के वास्तविक स्वभाव
को देख सके।
बुद्ध भीं हममें
यह अंतर्दृष्टि पैदा
नहीं कर सकते
वे हमें ऐसा
विकास करने का
एक अवसर प्रदान
कर सकते है।
क्या वे हमारी
ग्रहनशीलता को प्रभावी
बना सकते है?
क्या हमें भगवान
बुद्ध की सहायता
चाहिए ताकि हम
उनके लिए संभव
बनाएँ कि वे
हमारी सहायता कर
सकंे? किसी स्तर
पर ऐसा होता
होगा परन्तु यह
विचार पीछे ले
जाने वाला प्रवाह
है, और अच्छा
तो यह होगा
की पीछे ले
जाने वाला पहला
कदम न लिया
जाय। बुद्ध जो
दे सकें वह
स्वागत योग्य होना चाहिए।
यह विचार मन में उठ सकता है कि भगवान बुद्ध के सीधे प्रभाव के लिये उनकी उपस्थिति में रहना आवश्यक है। महायान ने इस बात को गंभीरता से लिया था कि अपना पुनर्जन्म जहाँ कोई बुद्ध हो वहाँ सुनिश्चित हो जाए। परन्तु ऐसा ज्यादा आवश्यक नहीं है, क्योकि मनःस्थितियों के लिये आकाश (space) और काल (time) की सीमा लागू नहीं होती। पर्याप्त प्रयास और ग्रहणशीलता द्वारा हम बुद्ध कि उपस्थिति की भावना पैदा कर सकते हैं। तिब्बती बौद्ध परम्परा में ध्यान का एक अभ्यास है जिसमें हम किसी बुद्ध या बोधिसत्व के मन में साक्षात (visualization) करते हैं जिन्हें
समयसत्व कहा जाता है अर्थात अभिसामयिक (conventional) प्राणी।
इन्हें मन में देखा ही नहीं जाता बल्कि मन में उतारा जाता है, जो कि बहुत सरल नहीं है। अंततः समयसत्व के साक्षात से जनसत्व अर्थात ‘ज्ञानसत्व ‘ प्रकट होते है। इस प्रकार के अभ्यास बौद्ध शिक्षाओं के वास्तविक स्वभाव के प्रमाण पत्र है। चाहे उन्होंनें दीर्घ व्याख्यान दिये हों या एक शब्द भी न कहा हो, वह जो थे और जो उन्होने किया वह उनके कहने कि अपेक्षा कहीं अधिक प्रभावी हुआ लोगों के लिये। व्यक्ति स्वयं एक प्रबुद्ध व्यक्ति, ही संदेश था। हम यहाँ तक कह सकते है बौद्धमत (Buddhism) बुद्ध है और बुद्ध ही बौद्धमत
है। उनके समय में बहुत से लोग प्रबुद्ध (enlightened) हो गाए, मुख्यतः
उनकी महान उपस्थिति के कारण।
बुद्ध कि मृत्यु जिसे महापरिनिर्वाण कहते हैं जो कि वह मृत्यु नहीं है जैसी हम समझते है, परन्तु उनकी संबोधी कि अनुभूति का विस्तार है, क्या हुआ था उसके ब्योरों (accounts) में विरोधाभास है, परन्तु इस बात पर सहमति है कि उनके महापरिनिर्वाण के कुछ ही समय बाद उनके शिष्यों की एक बड़ी संख्या ने एक गोष्ठी की थी एक निर्णायक प्रश्न पर चर्चा के लिये कि’ बौद्ध मत या बौद्ध धम्म क्या है? जहाँ तक हमारा मामला है तो हमारे लिये उनकी मृत्यु हो चुकी है-ऐतिहासिक अर्थ में नहीं, परन्तु उसी तरह जैसे हम अपने बुद्ध स्वभाव के लिए मर चुके हैं, या जाग्रत नहीं है। एक बौद्ध के लिये ‘बौद्ध धम्म क्या है? एक सैद्धांतिक प्रश्न नहीं हैं, बल्कि एक व्यावहारिक प्रश्न है। वास्तविक प्रश्न है कि बोधिगामी पथ क्या है। हम कैसे खोये हुए बुद्धत्व को दोबारा पा सकते हैं? इन दोनों प्रश्नों को एक साथ लेना आवश्यक है। बुद्ध स्वभाव तो हममें स्वाभाविक है ही। इसी को समझने के लिये आवश्यकता है बोधि पथ पर विकास की, जिसका अंकुर (potential) हममें है आरंभ से ही।
ऐसा लगता है कि भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद उनके शिष्य दो दलों में विभाजित हो गए थे। दोनों के दृष्टिकोण भिन्न थे। एक का मानना था कि बौद्ध धम्म बुद्ध कि शिक्षाएं है चार आर्य सत्य, आर्य अष्टांगिक मार्ग, संस्कृत अस्तित्व के तीन लक्षण, प्रतीत्य समुत्पाद के बारह निदान, आदि। यह सब बुद्ध ने अपने जीवन काल में बताया था और यही बोद्ध धम्म है उनके अनुसार। यह सब ठीक तो लग रहा है, परंतु दूसरा दल इससे सहमत नहीं था। उन्हें बुद्ध कि स्वयं दी गई शिक्षाएँ स्वीकार्य तो थी, परन्तु वे केवल मौखिक (verbal) शिक्षाओ
तक ही सीमित है- यह उन्हें स्वीकार्य नहीं था। उनकी, जो संख्या में अधिक थे, यह मानना था कि, बुद्ध के स्वयं के जीवन को और उनके व्यवहार को भी सम्मिलित करना होगा। उनके विचार में यह उनकी सैद्धांतिक शिक्षाओं से भी अधिक महत्व की शिक्षाओं का क्षेत्र था।
उन्होंनंे ऐसा क्यों
सोचा? हम इसका
अंदाजा, जबकि निश्चित
कुछ कह पाना
संभव नहीं है,
अपने को उनके
स्थान पर मानकर
लगा सकते है।
ऐसा करने में
हम बोधिसत्व आदर्श
के उद्भव के
समीप पहुँच जाते
हैं। जब भगवान
बुद्ध का परिनिर्वाण
हुआ तब उनके
शिष्य दुख में
डूब गये। परन्तु
सब नहीं। वैसे
तो देवता आदि
सभी दुखी दिखाये
गए हैं, परन्तु,
अरहंत जो स्वयं
बोधि प्राप्त थे,
वे विचलित नहीं
थे। उन्होने यह
मान लिया था
थी भौतिक शरीर
चाहे बुद्ध का
ही क्यों न
हो विघटित होगा
ही। यह उनकी
गंभीर परन्तु मान्य
धारणा थी। इस
प्रकार अरहंतांे ने तो
समचित्तता से बुद्ध
की मृत्यु को
स्वीकार कर लिया,
परन्तु, अन्य लोग
जो स्वयं प्रबुद्ध
नहीं थे उनके
लिये बुद्ध के
शरीर से ही
संबोधि भी जुड़ी
हुई थी। अतः
उनके लिये संसार
से उसका भी
लोप हो गया
था। कुछ लोगों
ने विलाप किया
‘संसार के चक्षु
लुप्त हो गए’। यह सत्य
नहीं था- बादल
ने सूर्य को
ढक लिया था
परन्तु सूर्य तो प्रकाश
दे ही रहा
था। सभी विदीर्ण
थे। परंपरानुसार पशु
भी दुखी थे।
भगवान बुद्ध के भतीजे
आनंद, जो उनके
व्यक्तिगत सहवर्ती रहे 20 वर्षों
से अधिक और
सब जगह उनके
साथ जाते थे,
से अधिक इस
बात की सच्चाई
और कोई नहीं
जनता था। आदि
बुद्ध को कोई
भोजन केे लिये
बुलाता, आनंद साथ
होते थे। जब
बुद्ध प्रवचन देने
जाते तो आनंद
भी जाते। जब
बुद्ध से कोई
मिलने वाला आता
या वे उत्तर
देते वहाँ भी
आनंद उपस्थित रहते।
आनंद बुद्ध के
साथ उनके साये
की तरह रहते
थे। बुद्ध ही
उनके लिये सब
कुछ थे। जब
तथागत बुद्ध मरणासन्न
थे तब आनंद
अवश्य ही सर्वाधिक
प्रभावित हुए थे।
महापरिनिर्वाण सूत्र के अनुसार
जब बुद्ध शाल
उपवन में पड़े
हुए थे, तब
आनंद उन्हें छोड़कर
पास के आवास
ग्रह पर चले
गये। वहाँ उनको
गहराई से महसूस
हुआ कि बुद्ध
की मृत्यु कुछ
ही दिनों या
घण्टों में होने
जा रही है।
दुःख से भरकर
आनंद रो पड़े
और अपने आप
से बोले भगवान
मुझ से दूर
जा रहे हैं,
जो इतने करुणावान
हैं।
यह शब्द सर्वाधिक महत्व के हैं। बीस वर्षों के दौरान आनंद ने बुद्ध को सैकड़ों प्रवचन देते हुए सुना होगा, उनमें से कई दार्शनिकतापूर्ण व दुर्बोध रहे होंगे अन्य कई रहस्यपूर्ण भी रहे होंगे। उन्होने बुद्ध को हजारों प्रश्नों के उत्तर देते सुना होगा। उन्होने बुद्ध के प्रताप, सौजन्य व जिस तरह सरलता से जटिल प्रश्नों का उत्तर देते थे, उसकी प्रशंसा की होगी। बिना संशय उन्होंने असाधारण घटनाएँ भी देखी होंगी। परन्तु आनंद की नजरों में सर्वोपरि थी बुद्ध की सहृदयता (kindness) इतना सब कुछ इतने वर्षों तक सुनने के बाद उन पर प्रभाव का सारांश इतना ही था वह जो इतने सहृदय है।
आधा बौद्धदर्शन या धर्म
इसी टिप्पणी में
है। अब हम
वापस लौटते है
बौधिसत्व आदर्श के उद
गम की और।
बुद्ध की प्रज्ञा
उजागर हुई है
उनकी सिद्धांतिक शिक्षाओं
में, परंतु उनका
प्रेम, करुणा, जिसने आनंद
को उनके अंतस्तल
तक प्रभावित किया
था, देखी जाती
है उनके स्वयं
के व्यवहार में।
यही था जिस
कारण वे शिष्य
बौद्ध धम्म को
केवल सैद्धांतिक
शिक्षाओं से पूरी
तरह जुड़ा हुआ
नहीं मानते थे।
उनके अनुसार बौद्ध
धम्म का आधार
दोनों ही बुद्ध
की सैद्धांतिक शिक्षाएं
और उनका प्रेम
और करुणा है।
हाँ हमें अवश्य
बोधि प्राप्ति की
चेष्टा करनी चाहिए
जाग्रत होने के
लिये और सत्य
के दर्शन के
लिये यह प्रज्ञा
का पहलू है।
परन्तु हमे प्रज्ञा
चाहिये सभी प्राणियों
की खातिर वह
करुणा का पहलू
है। यह दोनों
मिलकर बनाता है
‘बोधिसत्व आदर्श’।
हम कह सकते हैं की आनंद बोधिसत्व के प्रथम उदाहरण थे, जो कि बुद्ध की देख-रेख हरदम करते थे बिना अपनी आवश्यकताओं की चिंता किए, जब कि वे एक गंभीर आध्यात्मिक अभ्यासी थे अपनी ही तरह के। और जितना ब्यौरा उपलब्ध है उसके अनुसार बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद आनंद की कार्यशैली बुद्ध जैसी ही थी। वे जगह जगह धर्म का प्रवचन देने जाते थे, भिक्षुओं की बहुत बड़ी संख्या के साथ इसके लिये जब की उनकी निंदा भी की गई। यदि कोई बुद्ध की भावना (spirit) के समीप पहुँच पाया तो वह आनंद ही दिखाई देते थे। इसका विस्तारपूर्ण नहीं है निश्चित कहना कठिन है। परन्तु आनंद एक आकर्षक चरित्र के रूप में दिखाई देते हैं जैसे अन्य अरहत यहाँ तक की महाकष्यप और मोग्गलायन भीं नहीं दिखाई देते। कभी कभी ऐसा कहा गया है की आनंद ने अपने विकास पर ध्यान न देकर बुद्ध की सेवा की और इस कारण उनको बोधि बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद ही मिल पाई। यह सतही रूप से देखने का ढंग है जो यह कहने के बराबर है कि सेवा करना आध्यात्मिक विकास का भाग नहीं जबकि यह सेवाभाव निश्चय ही है। हम कह सकते है की यह वास्तव में अधिक निश्चित मार्ग है आध्यात्मिक विकास का क्योंकि हम अपनी ‘मैं’ का त्याग कर देते है, अपने स्वार्थ, अपनी लालसाएँ भी छोड़ देते हंै जैसा की आनंद ने किया होगा।
यह पता लगाना भी आसान नहीं है कि अथार्थतः कैसे बोधिसत्व आदर्श का आंदोलन के रूप में उपजा और अनंतः उसे अपनी विशिष्टता स्पष्ट करनी पड़ी उन लोगों की अपेक्षा जो इससे सहमत नहीं थे। किसी बिन्दु पर इसके मनाने वाले इसे महायान की दृष्टि कहने लगे, और इससे असहमति रखने वालों की हीनयानी (थेरवादी) कहते है। थेरवाद ने भगवान बुद्ध की मूल शिक्षाओं को शाब्दिक दृष्टि से और सर की दृष्टि से सदियों से बनाए रखा है। आदि वे बुद्ध के जीवन में श्रद्धा नहीं रखते तो फिर वह सब कथाएँ कैसी इतनी अच्छी तरह बची रहती। इसके बावजूद क्या हम कह सकते हैं कि उन्हे केवल भगवान बुद्ध की शिक्षाओं में ही आस्था थी, बुद्ध के जीवन की घटनाओं में नहीं? हम यह भी कह सकते हैं कि उन शिक्षाओं को अधिक महत्व न देते हुए भी उनको बचाए रखा गया होगा, क्योकि उनका मुख्य प्रयास था जितना संभव हो उतना बचाकर रख लिया जाये। हमें प्रसन्न होना चाहिये की ऐसा किया जा सका। ग्रन्थों की विभिन्न व्याख्याओं के बिना, जोकि बची रही अन्यथा यह पता ही न चलता की बौद्धमत उस आरंभिक काल में कैसा था। महायान से यह निश्चित ही पता नहीं चल सकता, जो की शिक्षाओं के पूरी तरह पुननिर्माण का प्रयास है, और जिसका ध्येय ऐतिहासिक बुद्ध न होकर एक आदर्श बुद्ध (rchetypal Buddha) है।
पालि वाङगमय कितना भी चयनित (selective) रहा हो अपने अंतिम भाग में, उसमें मूल शिक्षाओं के तत्व तो हैं जिनके आधार पर उनका पुननिर्माण हो सकता है। कुछ महायान सूत्र जैसे रत्नकेतुसूत्र में मूल शिक्षाओं की झलक मिलती है। अन्य जैसे सद धर्म पुंडरिक (white lotus sutra) का लगभग निश्चय ही कोई सीधा संबंध ऐतिहासिक बुद्ध की शिक्षाओं का बड़ा स्पष्ट सार या भावना का पता चलता है। पालि सूत्रों में इसी भावना का शक्तिशाली एवं विस्तृत चित्रण बुद्ध के जीवन की घटनाओं से मिलता है। आरंभ में वहाँ बुद्धत्व था। बुद्ध द्वारा स्थापित आदर्श बोधि प्राप्ति का था, जो उनके अपने लिये और अन्य के लिये भी एक ही था। उनके शिष्य जब लक्ष्य प्राप्त कर लेते थे जैसा बहुत लोगो ने किया, तब बुद्ध उनकी बोधि और अपनी बोधि के तथ्यों के बीच कोई भेद नहीं करते थे। उनको इस प्रकार कहते हुए दिखाया गया हैः भिक्षुओं, मैं सभी मानवीय व देवी बंधनों से मुक्त हो गया हु। तुम भी सभी मानवीय व देवी बंधनों से मुक्त हो गए हो। इससे पता चलता है की वह उनकी उपलब्धि को अपनी के बराबर मानते थे। अंतर केवल यही था कि बुद्ध को बोध पहले हुआ और अन्य लोगो को बोध बाद में उनकी शिक्षाओं के पालन से हुआ। इसी लिये उन लोगो की बोधि ‘अनुबोधि’ यानि परवर्तित बोधि कहलाई।
संभवतः हमारा निष्कर्ष होगा की बुद्ध ‘अधिक’ बोधि-प्राप्त
(enlightened) थे। बोधि कोई एक जड़ बिन्दु नहीं है जहाँ अन्त हो जाता है, इसे अनन्त में मानना चाहिये।
एक विशेष बिन्दु के बाद हम बुद्ध को नहीं ढूंढ पाते है धम्मपद में उन कोण न जाने हुये मार्ग वाला (tracklessone) कहा गया है। परन्तु जिस बिन्दु पर वह ओझल हो जाते हैं, आवश्यक नहीं है की वहीं पर लक्ष्य हैं। उससे परे भी लक्ष्य के कुछ योग्य हो सकता है। परन्तु जैसे जैसे पीड़ियाँ
बीतती गई, बौद्ध लोग यह मानने लग गए की बुद्ध और अन्य अरहतों की बोधि (enlightenment) में अंतर है। भगवान बुद्ध अग्रणी
(pioneer) थे। उन्होने
धम्म को ढूंढ निकाला था उस समय जब यह खो चुका था। और यह धारणा होने लगी थी की, उन्होने ऐसा पारमिताओं के अभ्यास द्वारा असंख्य जन्मों के बाद किया था। अरहतों के पास ऐसा लक्ष्य था नहीं, इसलिए अरहत उस कठिन प्रशिक्षण में नहीं रहे और इस तरह उनकी उपलब्धि भी एक बुद्ध की अपेक्षा कम हुई।
इसके साथ ही
बुद्ध के परिनिर्वाण
के 100 साल के
अंदर ही ऐसा
लगता है कि
बोधि का आदर्श
या इस आदर्श
का बोध निर्जीव
हो गया। ऐसा
लगता है की
समय बीतने के
साथ अरहत आदर्श
का पाटन होने
लगा और यह
अंततः एक शूद्र
व्यक्तिवादी बोधि की
धारणा भर रह
गई। मूल बौद्ध
दृष्टि खुली और
तरल थी। आरंभिक
बौद्ध परम्पराएँ स्वयं
अपनी ही अरहत
की धारणा का
व्यंग चित्र बन
कर रह गई,
जिसमें उन्हे अरहत शुष्क,
भावुकताहीन चरित्र दिखाया है।
यही विरासत महायान
को मिल रही
थी, परन्तु उन्हें
लगा की बुद्ध
की मूल शिक्षाओं
के उच्चतम आदर्श
इन धारणाओं द्वारा
अच्छी तरह व्यक्त
नहीं होते है।
यही से अब
शुरुआत होती है,
बौद्ध इतिहास में
एक नये अध्याय
की, और बोधिसत्व
आदर्श के उद्गम
की।
अंततः यह नहीं
माना जा सकता
की बोधि या
तो स्वयं की
लिये है आया
या स्वयं के
लिये नहीं है,
दूसरों के लिये
या दूसरों के
लिये नहीं है।
आध्यात्मिक विकास में अपने
हित के पहलू
को अन्य हित
के पहलू से
अलग करना असंभव
है। परन्तु महायानिओ
ने इनमें भेद
करने को आवश्यक
समझा, और निंदा
की दूसरी परंपरा
की यह कहकर
की एक तंग
रास्ता ‘हीनयान’ की स्थापना
की गई है
जो बोधि के
आदर्श को सीमित
बनाता है। कुछ
महायान सूत्रों ने बोधिसत्व
आदर्श को प्रोत्साहन
देने का ही
प्रयत्न नहीं किया,
अरहत को हीन
भी कहा। विमलकीर्ति
निर्देश सूत्र में सारिपुत्र
के शब्द ज्ञान
को विमलकीर्ति नामक
महायानी द्वरा पराजित होते
बार बार दिखाया
गया है। बुद्ध
के आरंभिक संघ
को हीनयान के
अनुरूप नहीं माना
जा सकता। महायान
ने ऐसी नीति
क्यो अपनाई? इसका
कारण ढूँढना कठिन
नहीं है। प्राचीन
भारत में ऐतिहासिकता
का महत्व न
के बराबर समझा
जाता था, जबकि
हमारे लिये ऐतिहासिक
परिप्रेक्ष्य में सोचना
बहुत ही स्वाभाविक
है। ऐसे में
जब अरहत आदर्श
सामने आया तो
महायान को स्वीकार
करना पड़ा क्योकि
भगवान बुद्ध ने
ऐसा कहा था,
हालांकि वे इससे
प्रसन्न नहीं थे।
उनके लिये ऐसा
सोचने का विकल्प
या अवसर नहीं
था की भगवान
बुद्ध ने कुछ
अन्य कहा था
जो कालांतर में
विकृत होकर एक
तरह का नकारात्मक
आदर्श बन गया।
उनको जो कुछ
घटित हुआ उसे
बुद्ध के जीवन
काल में घटित
मानना पड़ा, तथा
सब शिक्षाओं को
बुद्ध की शिक्षाओं
व आदर्श मानना
पड़ा।
इस विसंगति
का पता उन्हे इस प्रकार चला, इस सच्चाई का अहसास हुआ कि भगवान बुद्ध सब को अपनी अपनी आध्यात्मिक क्षमता के अनुसार शिक्षा देते थे। अतः उन्हंे लगा की अरहत आदर्श बुद्ध की शिक्षा थी अवश्य, परन्तु एक अन्तरिम (provisional) शिक्षा थी उनके लिये जो अपेक्षाकृत कम विकसित थे। जो लोग अधिक विकसित शिक्षाओं को ग्रहण करने के लिये तैयार थे उनके लिये भगवान बुद्ध ने बोधिसत्व आदर्श बताया था। यह युक्ति महायान के कई प्रचलित लेखों का मुख्य विषय रही है।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य जो हमे
मिला है, उसने
सारी स्थिति बदल
दी है। इसका
अर्थ है की
हमें सीमित रूप
से अरहत आदर्श
को देखने की
आवश्यकता नहीं है।
हम मान सकते
हैं की भगवान
बुद्ध ने बोधि
के आदर्श को
यथासंभव पूरी तरह
से बताया था,
और उनके समय
के लोगों ने
तथा बाद की
पीढिओं तक के
लोगों ने इसके
अर्थ को समझा
था। जैसे जैसे
समय बीता इस
समय में विकृतियाँ
आती गई। एक
अंतर देखा जाने
लगा बुद्ध और
अरहतों की उपलब्धियों
के बींच और
अरहत की उपलब्धि
कम मानी जाने
लगीं। अतः महायान
को बुद्ध की
सभी शिक्षाओं की
पुनः अभिव्यक्ति की
जरूरत महसूस हुई,
ताकि उन पर
जितना बल बुद्ध
ने दिया था
उतना ही फिर
लाया जाए। महायानियों
ने लक्ष्य की
एकता को फिर
से स्थापित किया,
यह कह कर
की बुद्धत्व सभी
प्राप्त कर सकते
है, अतः अरहत
का लक्ष्य लेकर
चलने की आवश्यकता
नहीं है।
समारोपण
एक मुख्य बात सभी
बौद्धों को याद
रखनी चाहिए कि
भगवान बुद्ध और
उनकी करुणा की
भावना को बौद्ध
धम्म से बाहर
नहीं रखा जा
सकता। इसी का
मुख्यत स्मरण करने के
लिए बौद्ध-पुजा-अर्चना करते है।
पुजा बुद्ध को
षब्द्षरू हमारे सामने ल
देती है जब
हम बुद्ध मूर्ति
के सामने विहार
में बैठते है।
जब हम मूर्ति
के सामने होते
है तो क्षण
भर के लिए
शिक्षा को भूल
सकते है। एक
क्षण के लिए
हम बुद्धत्व के
सम्मुख है और
इसका मनन कर
रहे है, अपने
सत्य स्वभाव को
पहचान रहे है।
बोधिसत्व आदर्श की मान्यता
है कि बोधि
प्राप्ति हेतु हमें
प्रज्ञा और करुणा
दोनों का विकास
करना होगा, अर्थात
स्व-हित और
परहित भाव दोनों
ही। यही आधार
ध्रुव है आंतरिक
संबोधी, प्रज्ञा द्वारा, और
उसकी बाही अभिव्यक्ति
करुणा द्वारा। यही
स्वभाव है उस
बोधिसत्व का जो
सर्वहित बोधि हेतु
संकल्प करता है।
संदर्भ ग्रंथ सूचीः
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Author: Dr. Manish T. Meshram, Assistant Professor,
School of Buddhist Studies & Civilization, Gautam Buddha University, Greater Noida
School of Buddhist Studies & Civilization, Gautam Buddha University, Greater Noida
सुंदर विवरण । बुद्धं शरणम् गच्छामि।
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