Monday, 5 September 2016

शील विपस्सना साधना का आधार

आचार्य जुगल किशोर बौद्ध

आर्य-आष्टांगिक मार्ग को तीन भागों में विभक्त किया गया है। वे तीन भाग हैं-शील, समाधि और प्रज्ञा। शील-भाग (=शील-स्कंध) के तीन अंग हैं-सम्यक वाणी, सम्यक कर्मांत तथा सम्यक आजीविका। इसी प्रकार समाधि भाग (=समाधि-स्कंध) के तीन अंग हैं-सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि। इससे आगे प्रज्ञा-भाग (=प्रज्ञा-स्कंध) के दो अंग हैं -सम्यक दृष्टि तथा सम्यक संकल्प। साधक अपनी साधना के प्रसंग में शील, समाधि तथा प्रज्ञा को विकसित करता है, पुष्ट करता है। इनमंे से शील से ही साधना का प्रारंभ होता है, समाधि से साधना का विकास होता है। प्रज्ञा के सहारे साधक अपने दुखनिरोध लक्ष्य को प्राप्त करता है। इस संसार में तृष्णा रूपी जटा को काटने, नष्ट करने के लिए मनुष्य को शील में प्रतिष्ठित होकर समाधि एवं प्रज्ञा का विकास करना चाहिए।

बिना शील के समाधि तथा प्रज्ञा का होना संभव नहीं है। अतः यदि कोई व्यक्ति बौद्ध धम्म में बताई गई ध्यान-साधना विधि (=विपस्सना-विधि) से चित्त की एकाग्रता को प्राप्त करना चाहता है तो उसके लिए सर्वप्रथम शील में प्रतिष्ठित होना, शील संपन्न होना अत्यावश्यक है। उसे अपने शील को हर प्रकार से पूर्णतः शुद्ध करना चाहिए। परिशुद्ध शील से ही चित्त की एकाग्रता की भावना की जा सकती है। अपरिशुद्ध शील से चित्त की एकाग्रता की भावना की गई तो समाधि नहीं हो पाएगी। अपरिशुद्ध शील से कुशल चित्त की एकाग्रता होकर अकुशल चित्त की एकाग्रता होगी और उससे सांसारिक दुखों का समूल नाश करने वाली प्रज्ञा उत्पन्न नहीं हो पाएगी।

ध्यान-साधना में परिशुद्ध शील के महत्व को देखते हुए यह आवश्यक है कि समाधि के लिए आधारभूत शील को जान लिया जाए। शील का यथार्थ अर्थ जाने बिना उसका पालन निरर्थक होगा।

शील का अर्थ

भगवान बुद्ध के मार्ग का प्रथम पग (=कदम) शील है। सामान्य अर्थ में यह स्वभाव चरित्रबल, आदत, रीति-रिवाज, अभ्यास, आचरण आदि के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। प्रचलित एवं सार्वजनिक रूप में इसका अर्थ नैतिकता, सदगुण, नैतिक कर्म, नैतिक सिद्धांत आदि के रूप में व्यक्त किया जाता है। परंपरागत भाव में इसे और आगे नैतिक जीवन या पवित्र जीवन के केंद्र बिंदु का नैतिक आधार, मूल अथवा नींव कहा जाता है। उच्च तकनीकी अर्थ में यह  कुशल-चेतना है।

इस प्रकार सरल रूप में शील का अर्थ है सदाचार। यह आधार, जिस पर व्यक्ति में संयम रूप सदगुण ठहरता है, उसे शील कहा जाता है। शील से अनाचार विदा होता है और सदाचार स्थित होता है। शील संपन्नता में लज्जा एवं संकोच है। अतः शील के इच्छुक व्यक्ति को लज्जा तथा संकोचयुक्त होना चाहिए। इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि शीलवान व्यक्ति को अपने किए गए कार्यों पर पश्चाताप नहीं  करना पड़ता।

दीघनिकाय के ब्रह्मजाल-सुत्त में आरंभिक शील, मध्यम शील तथा महाशील का विस्तृत वर्णन किया गया है। उनमें से सभी उपयोगी शीलों को संक्षिप्त रूप में निम्न प्रकार समाविष्ट किया जाता है-

1.            (पाणातिपाता) (=प्राणी हिंसा) से विरति।
2.            (अदत्तदान) (=चोरी) से विरति।
3.            (अब्रह्मचर्य) (=कामवासना) से विरति।
4.            (मृषावाद) (=झूठ बोलने) से विरति।
5.            (सुरामयमैरय) (=शराब तथा नशीले पदार्थों) के सेवन से विरति।
6.            (अकाल) (=बिना समय के) भोजन से विरति।
7.            (नृत्य, गीत, वाद्य) से विरति।
8.            (माला, गंध, विलेपन) से विरति।
9.            (उच्चाशयन, महाशयन) से विरति।
10.          (जातरूप-रजत) के प्रतिग्रह से विरति।

इन दस विरतियों में से उपासक के लिए प्रारंभ की पांच विरतियों का विधान है, जिन्हें पंचशील, शब्द से जाना जाता है। भिक्खुओं के लिए उक्त सभी दस विधियों से संपन्न रहने का विधान है। इन विरतियों को
धारण करने वाले के मन, वचन तथा काय में पवित्रता आती है। यह कायिक, वाचिक, मानसिक पवित्रता विपस्सना-साधना करने वाले साधक के लिए अत्यावश्यक है तथा चित्त की एकाग्रता में सहायक है।

विपस्सना-साधना करने वाले उपासक  साधक के लिए पांच शील ही पर्याप्त हैं। किंतु भिक्खुओं को सभी दस शीलों का पालन करते हुए जिन चार प्रकार के शीलों में विशुद्धि से संपन्न होने का निर्देश दिया गया है, वे इस प्रकार हैं-
1.            प्रातिमोक्षसंवरशील,
2.            इंद्रियसंवरशील,
3.            आजीवपरिशुद्धशील, और
4.            प्रत्ययसंतिश्रितशील।
ये शील भिक्खुआंे के संबंध में हैं, फिर भी हम संक्षेप में इन पर विचार कर लेते हैं।

प्रातिमोक्षसंवरशील
भगवान बुद्ध द्वारा भिक्खुओं के लिए प्रज्ञप्त शिक्षापदों को प्रातिमोक्षशील कहा गया है क्योंकि ये शिक्षापद अपाय आदि दुखों से मुक्त कराते हैं। जब भिक्खु प्रातिमोक्ष संवर (=संयम) से युक्त होता है, आचार एव गोचर से संपन्न होता है, अणु मात्र (अत्यंत सूक्ष्म) दोषों से भी भय खाता है और शिक्षापदों को भली-भांति सीखता है तो उस भिक्खु के शील को प्रातिमोक्षसंवर शील कहते हैं।

इंद्रियसंवरशील
इंद्रियों का संवरण (संयम) करने वाला शील इंद्रिय संवर शील कहा जाता है। चक्षु इंद्रिय से रूप विषय को, श्रोत्र इंद्रिय से शब्द विषय को, घ्राण (=नाक) इंद्रिय से गंध विषय को, जिह्वा (=जीभ) इंद्रिय से रस विषय को, काय इंद्रिय से स्पर्श विषय को तथा मन इद्रिय से मन के विषयों को ग्रहण कर, इन इंद्रियों का संवर (=संयम) करने वाला ध्यानी भिक्खु उन में शुभ निमित्तों को नहीं ग्रहण करता और नहीं ही उन्हें प्रकट करने वाले आकार विशेष को ग्रहण करता है। इस प्रकार यह राग, द्वेष, लोभ आदि विकारों को चित्त में नहीं उत्पन्न होने देता। फलस्वरूप वह इंद्रियों से उत्पन्न विकारों से सुरक्षित रहता है। जब ध्यानी भिक्खु इंद्रियों के विषयों से उत्पन्न होने वाली बुराइयों, विकारों का सतत स्मरण करता है तभी यह इस शील की रक्षा कर पाने में सफल  होता है।

आजीवपरिशुद्धशील
जीविकोपार्जन के लिए किए जाने वाले कायिक तथा वाचिक कार्य आजीव (आजीविका) कहलाते हैं। इसलिए आजीव के लिए कायिक एवं वाचिक कर्मों की शुद्धता में जो शील कारण है, उसे आजीव परिशुद्धिशील कहते हैं।

प्रत्ययसंतिश्रितशील
चीवर, पिंडपात, शयनासन तथा भैषज्य-इन चार प्रत्ययों का भली-भांति विचार करके ही सेवन करना प्रत्ययसंतिश्रित शील है। आजीव परिशुद्ध शीलपूर्वक प्राप्त चीवर आदि चार प्रत्ययों का सेवन करते समय यदि उचित विचार किया जाए तो वे प्रत्यय भिक्खु की ध्यान.साधना में बाधक सिद्ध होते हैं। अतः भिक्खु का यह अपेक्षित कर्तव्य है कि वह प्रत्ययों का सेवन करने सेे पूर्व उनके विषय में पूर्वा पर विचार आवश्यक रूप से करे। जिस प्रकार प्रातिमोक्ष संवर श्रद्धा से, उसी प्रकार स्मृति से इन्द्रिय संवर को पूर्ण करना चाहिए। क्योंकि स्मृति से बचाई गई इन्द्रियाँ लोभ आदि से नहीं पछाड़ी जाती हैं, अतः वे स्मृति से पूर्ण किया जाने वाला है। आजीव परिशुद्धि को वीर्य्य (उत्साह) से पूर्ण करना चाहिए तथा प्रत्यय सन्निमिश्रित शील को प्रज्ञा से इनके अतिरिक्त भिक्खुओं के लिए और भी शुद्धियों का विधान है।

भगवान बुद्ध ने जिस आष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया था, वही ध्यान-साधना, विपस्सना-साधना का मार्ग भी है। इस मार्ग का पालन किस क्रम में हो, इस पर ध्यान रखते हुए यह आष्टांगिक मार्ग तीन भागों में विभक्त किया जाता है। इनमें शील को ध्यान साधना का आधार माना गया है। यदि कोई साधक दुराचरण से युक्त हो तो यह तो समाधि रूप चित्त की एकाग्रता को प्राप्त कर सकता है और ही प्रज्ञा के द्वारा संस्कारों के अनित्य, दुख तथा अनात्म स्वभाव को जान सकता है। जब तक संस्कारों के यथार्थ स्वभाव का ज्ञान नहीं होता है, तब तक दुख का निरोध हो पाना संभव नहीं होता इसीलिए बौद्ध धम्म में ध्यान-साधना, विपस्सना-साधना के लिए शील को प्रमुख स्थान दिया गया है। इस प्रकार शील बौद्ध विपस्सना-साधना (=ध्यान-साधना) के तीन सोपानों में प्रथम अनिवार्य सोपान है। इस सोपान पर आरूढ होने पर ही साधक समाधि तथा प्रज्ञा को प्राप्त कर सकता है।

बौद्ध धम्म में वर्णित शील से ध्यानरत साधक आचार में विशुद्ध होने के साथ-साथ अपने में ऐसे गुणों का भी विकास कर लेता है जो चित्त के विकारों को दूर करने में सहायक होते हैं। अतः विपस्सना-साधना के लिए अधिशील शिक्षा परमावश्यक मानी गई है।1

शील-स्कंध (भाग) के तीन अंगांे-सम्यक वाणी, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीविका का पालन भिक्खुओं तथा उपासक साधकों दोनों के लिए अनिवार्य है, अतः हम इन पर संक्षेप में चर्चा करेंगे।
विपस्सना-साधना के लिए कायिक तथा वाचिक सदाचरण आवश्यक हैं जो शील के ही अंतर्गत आते हैं।
भगवान कहते हैं-

‘‘कतमा भिक्खवे सम्मावाचा?
मुसावादा वेरमणी पिसुणाय
वाचाय वेरमणी
फरुसाय वाचाय वेरमणी
सम्फप्पलापा वेरमणी
अयं वुच्चति भिक्खवे सम्मावाचा।’’
अर्थात- भिक्खुओं! किसको सम्मा वाचा (=सम्यक वाणी) कहते हैं?

झूठ, असत्य भाषण से विरति (दूर रहना) दुष्ट भाषण ने विरति, चुगली से विरति, कठोर भाषण से विरति, निरर्थक भाषण से विरति। भिक्खुओं! इसी को सम्यक वाणी कहते हैं।

वाणी के मल (=मैल) क्या हैं?
1.            झूठ बोलना, दूसरों को ठगना।
2.            झगड़ा, चुगली, निंदा करना, छल.कपट-युक्त बात करना
3.            कठोर, कटु (कड़वी) बात कहना, गाली देना, अपशब्द कहना, द्वेशयुक्त कहना।
4.            निरर्थक (=व्यर्थ), निकम्मी, बेकार बातंे करना।
वाणी के ये चार मैल हैं। जिस वाणी में ये मैल नहीं हैं, वही पवित्र एवं सम्यक वाणी है। वाणी के इन मैलों से अलिप्त (निर्लिप्त) रहने का अर्थ है सत्य, मधुर वाणी।
सम्यक कर्मांत के संबंध में भगवान कहते हैं-
‘‘कतमो भिक्खवे सम्मा कम्मंतो?
पाणातिपाता वेरमणी, अदिन्नादाना
वेरमणी,
कामेसु मिच्छाचारा वेरमणी
अयं वुच्चति भिक्खवे सम्मा कम्मंतो।।’’

अर्थः भिक्खुओ! सम्यक कर्म कौन से हैं? हिंसा से विरति, चोरी से विरति, व्यभिचार से विरति नशा, मादक पदार्थ सेवन से विरति। भिक्खुओ! इनको ही सम्यक कर्म कहते हैं।

काया का कर्म पवित्र होना चाहिए। काया से होने वाले मैल हैं-
1.            हिंसा, हत्या करना।
2.            चोरी, ठगना, छीनना।
3.            व्यभिचार करना
4.            नशा करना, मादक नशीले पदार्थों का सेवन करना।

इन कर्मों को छोड़कर शेष कर्म पवित्र हैं।

सम्यक आजीविका-भगवन कहते हैं-

कतमो भिक्खवे सम्मा आजीवो?
इध भिक्खवे अरियसावको
मिच्छा आजीवं
पहाय सम्मा आजीवेन जीविकं कप्पेति
अयं वुच्चति भिक्खवे सम्मा आजीवं।।’’

अर्थः सम्यक आजीविका क्या है? भिक्खुओं! आर्य श्रावक मिथ्या अर्थात निषिद्ध आजीविका को छोड़कर, उत्तम आजीविका से अपना जीवन-चरितार्थ करता है। इसको ही सम्यक आजीविका कहते हैं।

दूषित (गंदी) आजीविका क्या है?

1.            मदिरा, मादक, नशीले पदार्थों का व्यवसाय करना,
2.            ठगाई का, जुए का, गुलामों आदि का व्यवसाय करना,
3.            हथियारों का, दूसरों को हानि पहुंचाने वाला व्यवसाय करना,
4.            आवश्यकता की वस्तुएं संग्रहित करके बड़े दामों पर बेचना, दूसरों का
धन कैसे अधिक से अधिक अपने पास जाए, ऐसा व्यवसाय करना, धोखा देनेवाला व्यवसाय करना है।

ये चारों दूषित, मैली आजीविकाएँ हैं।

शील सदाचार संहिता का पालन करते हुए साधक अपनी विपस्सना-साधना को सफलतापूर्वक संपन्न कर सकता है। गृहस्थों के लिए जो आचार-संहिता निश्चित की गई है, उसे पंचशील कहते हैं। सारांश में पंचशील ये हैं-किसी प्रकार की हिंसा करना, चोरी करना, व्यभिचार करना, झूठ बोलना और मदिरा एवं नशीले पदार्थों का सेवन और प्रमाद करना। पंचशील के पालन से जीवन परिशुद्ध, निर्मल तथा विवेकशील बनता है। साधना करने वाले उपासक यदि चाहें तो शेष पांच शीलों का भी पालन कर सकते हैं। इनका पालन करने हेतु गृहस्थों पर कोई प्रतिबंध नहीं है। ये सभी शील सभी कायिक एवं वाचिक कर्माें पर नियंत्रण रखने में सहायक हैं। इनसे चित्त शुद्ध होकर एकाग्र होता है और ये समाधि के लिए चित्त (=मन) को पूर्णतया समाहित करने के लिए अनिवार्य हैं। विशुद्ध आचरण ही जीवन की यथार्थ संपति है जो कभी नष्ट नहीं होती और इससे सतत् वृद्धि होती है। शील से संपन्न होने वाला ही विशुद्धि मार्ग पर चल सकता है।

आष्टांगिक मार्ग के तीन भागों में से एकशीलको हमने जान लिया। अब आगे हम शेष दो भागांे-समाधि और प्रज्ञा पर संक्षिप्त चर्चा करेंगे।

पश्चाताप करना आदि शील के अनेक गुण हैं। भगवान ने कहा है- ‘‘आनंद! सुंदर शील (=सदाचार) पश्चाताप करने के लिए है। पश्चाताप करना इसका गुण है।’’ आगे भी भगवान ने कहा है-“गृहपतियो! शीलवान के शीलपालन के पांच गुण हैं। कौन से पांच? 1. यहाँ गृहपतियों! शीलवान शील-युक्त व्यक्ति प्रमाद (=आलस्य) में पड़ने के कारण बहुत सी धन संपत्ति को प्राप्त करता है। 2. शीलवान की ख्याति, नेकनामी (सदाचारी होने से) फैलती है। 3. वह जिस सभा में जाता है चाहे क्षत्रियों की सभा हो, चाहे ब्राह्मणों की सभा हो, चाहे श्रमणों की सभा हो, निर्भीक-निःसंकोच जाता है। 4. बिना बेहोशी (=अचेतना) को प्राप्त हुए मरता है।  5. मरने के बाद सुगति को प्राप्त होकर स्वर्गलोक (=सुलोक) में उत्पन्न होता है।’’

भगवान ने कहा-‘‘भिक्खुओं! यदि भिक्खु चाहे कि मैं सब्रह्मचारियों (=गुरु भाइयों) का प्रिय, पनाप और आदर की दृष्टि से देखे जाने वाला होऊँ तो शील का पालन करना चाहिए।

इस प्रकार पश्चाताप करना आदि अनेक प्रकार के गुणों की प्राप्ति शील का गुण है। शील नाना प्रकार के होते हैं। संक्षेप में कहें तो चार परिशुद्ध शील में ही सब कुछ जाते हैं। प्रातिमोक्ष संवर शील, इंद्रिय संवर शील, आजीव परिशुद्धि शील और प्रत्यय सन्निश्रित शील - ये चार परिशुद्ध शील हैं। पीछे के पृष्ठों में इस पर चर्चा की जा चुकी है।

उक्त चारों प्रकार के शीलों में जैसे शिक्षापद बतलाए गए हैं, वैसे, श्रद्धापूर्वक प्रातिमोक्ष संवर को अपने जीवन की चाह करते हुए भली-भांति पूर्ण करना चाहिए। इसीलिए सुत्तनिपात में कहा गया है-

किकी अण्डं चमरी वालधिं,
वियं पुत्तं नयनं एककं।
तथेव सीलं अनुरक्खमानका,
सुपेलसा होथ सदा सगारवा।।
                                      - सुत्तनिपात

अर्थ-जैसे टिटहरी अपने अंडे की, चमरी अपनी पूँछ की, माँ अपने इकलौते प्रिय पुत्र की, काना अपनी अकेली आंख की रक्षा करता है, वैसे ही शील की भली.भांति रक्षा करते हुए शील के प्रति सर्वदा प्रेम और गौरव करने वाले होओ।

1. थेरो डॉ. डी. रेवत, थेरवाद बौद्ध-धर्म में योग और साधना, मूलगंध कुटी विहार, सारनाथ, 1992,
पृष्ठ 56

The article is republished from the book Vipassana written by Acharya Jugal Kishore Baudh with permission from the publisher, Samyak Prakashan.

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