आचार्य जुगल किशोर
बौद्ध
विशेष रूप से
देखना ‘विपस्सना’ है। विपस्सना की
भावना से
साधक क्षण-क्षण में
उत्पन्न और
नष्ट होने
वाले नाम-रूप धर्मों
(रूप और
मन के
स्वभाव) के
अनित्य स्वभाव
को जानता
है। तत्पश्चात
जो अनित्य
है, वह
दुख रूप
है, इस
सच्चाई का
अनुभव करता
है। अंत
में साधक
यह जानता
है कि
जो नाम.रूप अनित्य
एवं दुख
स्वरूप है,
वह अनात्म
है। इस
प्रकार साधक
जब नाम.रूप धर्मों
के अनित्य,
दुख तथा
अनात्म स्वरूप
को विशेष
रूप से
देखने लगता
है तो
उसके ज्ञान
को विपस्सना.ज्ञान कहते
हैं।1
मलेशिया के विपस्सना
आचार्य पूज्य
ऊ जनकाभीवमसा
ने अपने
व्याख्यान मंे कहा था- ‘‘विपस्सना-साधना अथवा
जागरूकता एक
सिद्धांत है
उस नाम-रूप की
स्वाभाविक प्रक्रिया का, जिस प्रकार
यथार्थ में
वह है,
उसे वैसे
ही जागरूकता
से देखना।
यह विपस्सना.साधना न
केवल सहज
और सरल
है वरन
दुखों के
अंत का
लक्ष्य प्राप्त
करने के
लिए भी
बहुत प्रभावशाली
है।’’
...जब हम किसी
घटनाक्रम (किसी चीज) को उसके
यथार्थ रूप
में जानना
चाहंे, तब
हमें बिना
उसका विश्लेषण
किए, बिना
तार्किक कारण
केे, बिना
दार्शनिक विचार
के और
बिना पूर्वाग्रह
के, उसके
प्रति जागरूक
होकर उसे
वैसा ही
देखना चाहिए
जैसे कि
वह यथार्थ
में घटित
हो रहा
है।’’2
ऊ जनकाभीवमसा जी
विपस्सना के
संबंध में
बताते हैं-‘‘विपस्सना धर्म
का एक
पारिभाषिक शब्द है, जो दो
शब्दों का
सम्मिश्रण है। ‘वि’
एक शब्द है, ‘पश्यना’ दूसरा शब्द
है। यहां
‘वि’ तीन संलक्षणों
(विशिष्टताओं) की ओर संकेत करता
है, जो
हैं-अनित्य,
दुख और
अनात्म (कोई
आत्मा नहीं)। ‘पश्यना’ का अर्थ है
सम्यक दृष्टि
अथवा गहन
साधना के
माध्यम से
अथवा ‘नाम’ और ‘रूप’ के तीन
स्वरूपों को
सही रूप
से समझना।
जब हम
विपस्सना का
अभ्यास करते
हैं तो
हमारा उद्देश्य
होता है
अनित्य, दुख
और अनात्म
के तीन
लक्षणों को
देखना, समझना।’’
विपस्सना को ध्यान
भी कहते
हंै। आचार्य
रजनीश के
अनुसार-विपस्सना
का अर्थ
है अंतरदर्शन-भीतर देखना।...ध्यान है
भीतर झांकना।
वे अपने
व्याख्यान में कहते हैं, ‘‘बीज
को स्वयं
की संभावनाओं
का कोई
भी पता
नहीं होता
है। ऐसा
ही मनुष्य
भी है।
उसे भी
पता नहीं
कि वह
क्या है-क्या हो
सकता है।
लेकिन, बीज
शायद स्वयं
के भीतर
झांक भी
नहीं सकता
है पर
मनुष्य तो
झांक सकता
है। यह
झांकना ही
ध्यान है।
स्वयं के
पूर्ण सत्य
को अभी
और यहीं
(हियर एंड
नाउ) जानना
ही ध्यान
है। ध्यान
में उतरें-गहरे और
गहरे। गहराई
के दर्पण
में संभावनाओं
का पूर्ण
प्रतिफलन उपलब्ध
हो जाता
है और
जो हो
सकता है,
वह होना
शुरू हो
जाता है।
जो संभवतः
उसकी प्रतीति
ही उसे
वास्तविक बनाने
लगती है।
बीज जैसे
ही संभावनाओं
के स्वप्नों
से आंदोलित
होता है,
वैसे ही
अकुंरित होने
लगता है।
शक्ति, समय
और संकल्प
सभी ध्यान
को समर्पित
कर दंे,
क्योंकि ध्यान
ही वह
द्वारहीन द्वार
है जो
कि स्वयं
को स्वयं
से परिचित
कराता है।
ध्यान है अमृत,
ध्यान है
जीवन। विवेक
ही अंततः
श्रद्धा के
द्वार खोलता
है। विवेकहीन
श्रद्धा, श्रद्धा
नहीं, मात्र
आत्म.प्रवंचना
है। ध्यान
से विवेक
जागेगा। वैसे
ही जैसे
सूर्य के
आगमन से
भोर में
जगत जाग
उठता है!
ध्यान पर
श्रम करें।
क्योंकि अंततः
शेष सब
श्रम समय
के मरुस्थल
में कहाँ
खो जाता
है पता
ही नहीं
पड़ता है।
हाथ में
बचती है
केवल ध्यान
की संपदा
और मृत्यु
भी उसे
नहीं छीन
पाती है।
क्योंकि मृत्यु
का वश
काल (टाइम)
से बाहर
नहीं है।
इसलिए तो
मृत्यु को
काल कहते
हैं। ध्यान
ले जाता
है कालातीत
में। समय
और स्थान
(स्पेस) के
बाहर। अर्थात
अमृत में।
काल (टाइम)
है विष।
क्योंकि काल
है जन्म,
काल है
मृत्यु। ध्यान
है अमृत।
क्योंकि ध्यान
है जीवन।
ध्यान पर
श्रम जीवन
पर ही
श्रम है।
ध्यान की
खोज में
जीवन की
ही खोज
है।
यथार्थ में तो
मन ही
समस्या है।
सभी समस्याएँ
मन की
प्रतिध्वनियां मात्र हैं। शाखाओं को
मत काटो।
काटना ही
है तो
जड़ को
काटो। जड़
के कटने
से शाखाएँ
अपने आप
विदा हो
जाती हैं।
मन है
जड़। इस
मन रूपी
जड़ को
ध्यान से
काटो। मन
है समस्या।
ध्यान है
समाधान। मन
में समाधान
नहीं है।
ध्यान में
समस्या नहीं
है। क्योंकि
मन में
ध्यान नहीं
है। क्यांेकि
ध्यान में
मन नहीं
है। ध्यान
की अनुपस्थिति
है मन।
मन का
अभाव है
ध्यान। इसलिए
कहता हूंँ-ध्यान के
लिए श्रम
करो।3
विपस्सना के विश्वविख्यात
आचार्य सत्यनारायण
गोयन्का जी
ने भी
कहा है
कि अपने
अंदर जो
चल रहा
है, उसे
समभाव से
देखना ही
विपस्सना है।
स्वयं की
सांस, काया
और काया
की संवेदनाओं
के आधार
पर चित्त=मन को
एकाग्र करना
ही विपस्सना
है।
भगवान बुद्ध ने
बुद्धत्व प्राप्ति
से पूर्व
उस समय
की प्रचलित
एव परंपरागत
अनेक तपश्चर्या-विधियों को
अपनाकर देखा
था, किंतु
उन्हें छ
वर्ष की
कठोरतम तपस्या
के पश्चात
भी किसी
प्रकार का
संतोषजनक परिणाम
नहीं प्राप्त
हुआ। अंत
में जिस
ध्यान-विधि
की स्वयं
खोज कर,
उसका अभ्यास
करते हुए,
निर्वाण एवं
बुद्धत्व की
प्राप्ति हुई,
वही विधि
विपस्सना ध्यान.पद्धति है
।
विपस्सना प्रज्ञा का
मार्ग है।
यह लोकोत्तर
समाधि है।
भगवान बुद्ध
ने नाम.रूप धर्मों
के जिस
अनित्य, दुख
एवं अनात्म लक्षणों
का प्रतिपादन
किया है,
उसकी वास्तविक
अनुभूति विपस्सना
की भावना
से ही
संभव है।
विपस्सना की
भावना का
आलंबन नाम-रूप ही
होते हैं।
विपस्सना आलंबन
लौकिक कर्मस्थान
नहीं होते
हंै, इसीलिए
इसे लोकोत्तर
समाधि कहा
जाता है।
माननीय लक्ष्मीनारायण राठी
जी लिखते
हैं- ‘‘धर्मों
का विषेश
रूप से
दर्शन करने
वाली प्रज्ञा
‘विपस्सना’ है। अंतर्मुखी
होकर ‘विषेश
रूप से
देखना’ विपस्सना है।
विपस्सना-भावना
प्रज्ञा का
कर्मस्थान है, जैसे समाधि का
कर्मस्थान आनापान-स्मृति है। अनित्य,
दुख, अनात्म,
अशुभ का
अपनी अनुभूतियों
के आधार
पर यथाभूत
दर्शन से
बोध होना
‘प्रज्ञा’ है। समतापूर्वक
यथाभूत दर्शन
अंतर्मन की
गहराइयों में
जाकर करना
‘विपस्सना’ है।’’
बौद्ध धम्म उस
विशाल वृक्ष
के समान
है जिसमें
तना, शाखाएँं,
जड़ें, पत्ते,
फूल, फल,
छाल, नरम
लकड़ी और
गूदा होता
है। उनमें
से किसी
एक को
भी वृक्ष
नहीं कहा
जा सकता,
किंतु उन
सब के
मिलने पर
एक वृक्ष
बनता है।
इसी प्रकार
शील, समाधि
और प्रज्ञा
वे अनिवार्य
तत्व हैं
जो बौद्ध
घम्म के
सभी मूलतत्त्वों
(घटकों) को
जोडे़ रखते
हैं। बिना
शील के
समाधि नहीं
होती और
बिना समाधि
के प्रज्ञा
नहीं होती।
भगवान बुद्ध
ने सोणदंड
ब्रह्मण को
संबोधित करते
हुए कहा
था... शील
प्रक्षालित प्रज्ञा है, प्रज्ञा-प्रक्षालित
शील है।
जहाँ शील
है वहीं
प्रज्ञा है।
जहाँ प्रज्ञा
है वहां
शील है।
शीलवान को
प्रज्ञा होती
है, प्रज्ञावान
को शील।
किंतु लोक
में शील
को प्रज्ञा
का सरदार
कहा जाता
है...।’’
भगवान ने कहा
है-
नत्थि झानं अपंञस्स
पंञा नत्थि
अझायतो।
यम्हि झानंञ पञाच
स वे
निब्बानसंतिके।।
- धम्मपद 372
अर्थः प्रज्ञाविहीन (पुरुष)
को ध्यान
नहीं (होता)
है, ध्यान
(एकाग्रता) न करने वाले को
प्रज्ञा नहीं
हो सकती।
जिसमें ध्यान
और प्रज्ञा
दोनों हंै,
वही निर्वाण
के समीप
है।
उपरोक्त गाथा से
स्पष्ट होता
है कि
ध्यान (विपस्सना)
कितना महत्वपूर्ण
है जो
शील एवं
प्रज्ञा के
साथ मिलकर
बौद्ध धम्म
के सभी
घटकों को
जोड़े रखता
है। अंतर्मुखी
होने के
लिए और
मन तथा
शरीर में
सतत हो
रहे परिवर्तनों
अर्थात अनित्यता
को जानने
के लिए
विपस्सना-साधना
ही सहायक
हो सकती
है।
यद्यपि भगवान बुद्ध
ने अपनी
ध्यान-साधना
के बल
पर बुद्धत्व
प्राप्ति के
पश्चात विपस्सना-साधना को
स्थापित किया
था तथापि
इसका अभ्यास
मात्र बौद्धों
तक सीमित
नहीं है।
इसमें धर्मपरिवर्तन
का तो
कोई प्रश्न
नहीं उठता।
समस्त प्राणी
एक.सी
समस्याओं से
पीड़ित हैं
चाहे वे
किसी भी
धर्म से
संबंधित हों।
विपस्सना का
उद्देश्य समस्त
प्राणियों की समस्याओं का समाधान
करना है।
संसार में
सभी लोग
दुखों एवं
दुखों के
कारणों से
संतृप्त हैं।
उन दुखों
से मुक्ति
का मार्ग
दिखा देना
ही विपस्सना
का समर्पित
कार्य है।
हिंदू, जैन, मुसलमान,
सिख, यहूदी,
रोमन कैथोलिक
और अन्य
ईसाई समुदायों
के लोगों
ने विपस्सना
शिविरों में
सम्मिलित होकर
विपस्सना का
अभ्यास सीखा
है। उन्हें
मानसिक तनाव
तथा अन्य
जटिल समस्याओं
से मुक्ति
प्राप्त हुई
है। प्रमुख
पादरियों और
गिरजाघरों की मठवासिनियों ने रोमन
कैथोलिक श्रद्धा
के बावजूद
विपस्सना के
शिविरों में
भाग लिया
है और
इससे उनकी
आस्था पर
कोई प्रभाव
नहीं पड़ा
है। विपस्सना
शिविरों में
भाग लेने
वाले सभी
लोग भगवान
बुद्ध के
प्रति कृतज्ञता
की भावना
रखते हैं
कि बुद्ध
ने दुख
से मुक्ति
का इतना
श्रेष्ठ मार्ग
दिखाया और
इसके पीछे
कोई अंधविश्वास
नहीं है।
1. रेवत भिक्खु
डाॅ. डी.
थेरवाद बौद्ध
धम्म में
योग और
साधना, मूलगंध
कुटी विहार,
सारनाथ, वाराणसी,
1992, पृष्ठ 126
अनिच्चादिवसेन विविधेन
आकारेन पस्सती विपस्सना।
(अट्ठ. पृष्ठ
45)
एत्थ च
अनिच्चलक्खणमेव आगतं, न दुक्खलक्खण अनत्तलक्खणानि।
अत्थवसेन पन
आगतानेवाति दट्ठब्बनि...यहि अनिच्चं तं
दुक्खं, तदनत्ताति।
2. सया जे
ऊ जनकाभीवमसा,
विपस्सना मैडीटेशन,
द कोर्पोरेट
बाडी आॅफ
द बुद्ध
एजुकेशन फांऊडेशन,
ताईवान, 1998, पृष्ठ 10
3. ओशो रजनीश,
रजनीश ध्यानयोग,
डायमण्ड पाकेट
बुक्स, नई
दिल्ली-1995, पृष्ठ 7
The article is republished from the book Vipassana written by Acharya Jugal Kishore Baudh with permission from the publisher, Samyak Prakashan.
The article is republished from the book Vipassana written by Acharya Jugal Kishore Baudh with permission from the publisher, Samyak Prakashan.
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