आचार्य
जुगल किशोर बौद्ध
कुशल-चित्त
से युक्त विपस्सना-ज्ञान प्रज्ञा है। धर्म के स्वभाव को जानने के लक्षण वाली प्रज्ञा
है। ठीक प्रकार से जान लेने का नाम प्रज्ञा है। ऊपरी सत्य को गहराई में बींधकर भीतरी
अंतिम सत्य को जान लेना ही प्रज्ञा है। सभी दुखों के क्षय का ज्ञान प्रज्ञा है। यही
परम आर्य-सत्य है यह जो अक्षय-निर्वाण है। यह आर्य-त्याग है, यह सभी उपाधियों का त्याग
है। यही परम आर्य-उपशमन है, यह तो राग-द्वेष-मोह का उपशमन है। प्रज्ञावान व्यक्ति जो
भी स्थिति सामने है उसे देखते हुए अपनी बींधती हुई प्रज्ञा दृष्टि द्वारा गहराइयों
में उतरकर अंतिम सत्य का साक्षात्कार करता है। धर्म के स्वभाव को जानने वाली है प्रज्ञा।
वह धर्मों के स्वभाव को ढकने वाले मोह के अंधकार का नाश करने का कार्य करने वाली है।
समाधि प्रज्ञा का प्रत्यय है। स्कंध, आयतन, धातु, इंद्रिय, सत्य प्रतीत्यसमुत्पाद आदि
प्रज्ञा की धर्म-भूतियां हैं।
आर्य-आष्टांगिक
मार्ग का तीसरा भाग, स्कंध ‘प्रज्ञा’ है। प्रज्ञा भाग के दो अंग
हैं-
1.
सम्मा दिðि (=सम्यक दृष्टि) और 2. सम्मा
संकप्पो (सम्यक संकल्प)।
सम्यक
दृष्टि क्या है ?
अंतिम
सत्य का स्वयं की अनुभूति से दर्शन करना ही सम्यक दृष्टि है। दूसरे ने जो देखा और वर्णन
किया वह उसका दर्शन है, अपने काम का स्वयं के अनुभव द्वारा किया गया दर्शन ही प्रज्ञा
दर्शन है। अनुभव जितना गहरा होता है उतना ही गहरा सम्यक दर्शन गहरा होता जाता है। यही
‘विपस्सना-साधना’ द्वारा प्राप्त होता है।
भगवान
बुद्ध कहते हैं- ‘‘भिक्खुओ! जिस समय आर्य-श्रावक दुराचरण को पहचान लेता है, दुराचरण
के मूल कारण को पहचान लेता है, सदाचरण को पहचान लेता है, सदाचरण के मूल कारण को पहचान
लेता है, तब उसकी दृष्टि, इस कारण से भी सम्यक दृष्टि कहलाती है, उसकी इस धर्म में
अचल श्रद्धा है, वह इस धर्म में आ गया है’’ इस
प्रकार उसने किसी के द्वारा पहचान करवाने पर नहीं पहचाना है वरन् स्वयं के अनुभव, स्वयं
की अनुभूति के आधार पर पहचाना है और जाना है। इसलिए यह सम्यक दृष्टि है।
आर्य-श्रावक
पहचान और जान लेता है कि दुराचरण है-
जीव
हिंसा, चोरी, कामभोग संबंधी मिथ्याचार - शारीरिक कृत्य
झूठ,
चुगली, कठोर एवं व्यर्थ वचन-वाणी के कृत्य
लोभ,
क्रोध, मिथ्या-दृष्टि-मन के कृत्य
वह
पहचान लेता है कि दुराचरण का मूल कारण लोभ है, दुराचरण का मूल कारण द्वेष है, दुराचरण
का मूल कारण मोह है और लोभ, द्वेष, मोह के कारण ही अकुशल (=पापमय) शारीरिक, वाचिक और
मानसिक (=मन के) कार्य होते हंै, जो दुराचरण है।
आर्य
श्रावक पहचान और जान लेता है कि सदाचरण है-
जीव
हिंसा न करना, चोरी न करना, काम भोग संबंधी मिथ्याचार न करना - शारीरिक कृत्य
झूठ
न बोलना, चुगली न करना, कठोर एवं व्यर्थ वचन न बोलना - वाणी के कृत्य
लोभ
न करना, क्रोध न करना, मिथ्या-दृष्टि न रखना - मन के कृत्य
वह
पहचान और जान लेता है कि सदाचरण का मूल कारण लोभ का न होना है, सदाचरण का मूल कारण
द्वेष का न होना है, सदाचरण का मूल कारण मोह का न होना है। वह जान लेता है कि लोभ के
न होने, द्वेष के न होने, मोह के न होने से कुशल (पुण्य) शारीरिक, वाचिक और मानसिक
(=मन के) कार्य होते हंै जिसे सदाचरण कहते हैं।
सम्यक
दृष्टि को और भी स्पष्ट रूप से जानने के लिए भगवान ने जो कहा है, उसे हम ग्रहण करते
हैं-
‘‘भिक्खुओं! यदि कोई पूछे कि
भगवान किस दृष्टि के हैं? तो उसे भिक्खु क्या उत्तर दोगे? भिक्खुओं! ‘तथागत किस दृष्टि
के हैं’ ऐसी बात नहीं रही है। भिक्खुओं! तथागत ने यह सब देख लिया
है कि यह रूप है, यह रूप का समुदाय (=कारण) है, यह रूप का अस्त होना है, यह वेदना है,
यह वेदना का समुदय है, यह वेदना का अस्त होना है, यह संज्ञा है, यह संज्ञा का समुदय
है, यह संज्ञा का अस्त होना है, यह संखार (=संस्कार) है, यह संखारों का समुदय है, यह
संखारों का अस्त होना है और यह विज्ञान है, यह विज्ञान का समुदय है, यह विज्ञान का
अस्त होना है। इसलिए कहता हूँ, कि सभी मानताओं (=मान्यताओं) के, सभी अस्तित्वों के,
सभी अहंकारों के, सभी ‘मेरे’ के, सभी अभिमानों के नाश से,
विराग से, त्याग से, छूटने से, उपादान (=रागयुक्त ग्रहण) न रहने से, तथागत मुक्त हो
गए हैं।’’
इस
प्रकार यह देख लेना कि ये पाँच स्कंध (=रूप वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान) है, इनका
समुदय (=कारण) है और इनका अस्त होना (=समाप्त हो जाना) है यही सम्यक दृष्टि है।
सम्यक
संकल्प क्या है?
संकल्प
का अर्थ है विचार, चिंतन-मनन। विचार सम्यक (=ठीक) होना चाहिए। राग-द्वेष रहित विचार
या चिंतन-मनन ही सम्यक संकल्प है। संक्षेप मे, चार आर्य-सत्य के साक्षात्कार में रत
साधक का, निर्वाण के आलंबनवाला और अविद्या के आवरण का नाश करने वाला प्रज्ञाचक्षु,
सम्यक दृष्टि है।
मिथ्या
संकल्प का नाश करने वाला चित्त को निर्वाणपद में लगाने वाला, सम्यक संकल्प है। सम्यक
संकल्प चित्त को सही दिशा में लगाने वाला और निर्वाण तक पहुंचाने वाला है तथा मिथ्या
संकल्प का क्षय करने वाला है।
तीन
प्रकार की प्रज्ञा-प्रज्ञा के तीन प्रकार है-
1.
श्रुतमयी प्रज्ञा, 2. चिंतनमयी प्रज्ञा, 3. भावनामयी प्रज्ञा।
1.
श्रुतमयी प्रज्ञा-जो प्रज्ञा सुनकर या अध्ययन करके प्राप्त होती है, वह श्रुतमयी प्रज्ञा
है। सुन लिया गया, अध्ययन किया गया ज्ञान तो पराया ज्ञान है वह हमारा नहीं है। ऐसा
ज्ञान प्रेरणा एवं मार्गदर्शन प्रदान करता है, किन्तु यह हमारे द्धारा जान लिया गया
ज्ञान नहीं है। यदि जानना है तो यह स्वयं के अनुभव पर आधारित होना ही चाहिए। परंपराओं
और मान्यताओं पर आधारित ज्ञान को आँख बंद करके मान लेना तो अंधी-श्रंद्धा है और ऐसी
अंधी-श्रंद्धा घातक है। अतः स्वयं के अनुभव के आधार पर अपने ज्ञान को विकसित करना चाहिए।
2.
चिंतनमयी प्रज्ञा-हमने जो सुना है, अध्ययन किया है उससे प्राप्त श्रुतमयी प्रज्ञा को
विचार-विमर्श द्वारा, चिंतन-मनन द्वारा, तर्क-वितर्क द्धारा अपनी बुद्धि की कसौटी पर
परखकर उसे न्याय-संगत, युक्ति-संगत, तर्क-संगत समझते हुए पुष्ट करना ‘चिंतनमयी प्रज्ञा’ है। किंतु ये श्रुतिमयी प्रज्ञा एवं चिंतनमयी प्रज्ञा
तो खाद्य हैं। इस खाद्य पर स्वयं की प्रज्ञा को जगाना ही कल्याणकारी हो सकता है। ऐसी
प्रज्ञा को जगाना और यथार्थ लाभ प्राप्त करना तीसरी प्रज्ञा से संभव है, जो है भावनामयी
प्रज्ञा।
3.
भावनामयी प्रज्ञा-वह प्रज्ञा जो हमारी स्वयं की अनुभूतियों के बल पर हमारे भीतर अंतर्मन
में स्फुटित होती हैं, प्रकट होती हैं, वह भावनामयी प्रज्ञा है। यह हमारे स्वयं के
साक्षात्कार का फल है, परिणाम है, अतः यह हमारी कल्याणकारी प्रज्ञा है। भावना का अर्थ
है, विकसित करना, बढ़ाना, फैलाना। किन्तु इसका अर्थ भावुकता या भावावेश कदापि नहीं है।
भावनामयी
प्रज्ञा के लिए आवश्यक है शील संपन्न होना और सम्यक समाधि को प्राप्त करना। सम्यक समाधि
में समाहित चित्त ही यथार्थ सत्य को जान सकता है, उसका यथाभूत दर्शन कर सकता है। इस
यथाभूत देखने को ही ‘विपस्सना’ अर्थात विशेष रूप से देखना
कहते हैं।
यह
प्रज्ञा की संक्षिप्त जानकारी है। ‘शील’ एवं ‘समाधि’ पर पीछे के दो अध्याय तथा ‘प्रज्ञा’ पर यह अध्याय आर्य-आष्टांगिक मार्ग के तीन भागों का अध्ययन
है जो ‘विपस्सना-साधना’ द्वारा पुष्ट करने पर यथार्थ
ज्ञान में परिणित हो जाता है और यही यथाभूत सत्य है।
साधक
अपने चित्त को ही साधना द्वारा अधिक एकाग्र, अधिक स्वच्छ, अधिक सूक्ष्म करके उस निर्मल
प्रज्ञा को प्राप्त कर लेता है जिसकी प्राप्ति होने पर यह सारा ज्ञान उसे दर्पण में
आकृति की भांति स्पष्ट भासने (दिखाई देने) लगता है।
The article is republished from the book Vipassana written by Acharya Jugal Kishore Baudh with permission from the publisher, Samyak Prakashan.
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