आचार्य जुगल किशोर बौद्ध
मानव और कुछ नहीं, केवल पांच स्कंधों का अनित्य संघात है। सरल रूप में कहें तो मनुष्य पांच स्कंधों का एक परिवर्तनशील (अनित्य) समूह है। ये स्कंध हैं-रूप, वेदना, संज्ञा संस्कार तथा विज्ञान। स्कंधो में वेदना, संज्ञा और संस्कार रूप के संबंध में विज्ञान (-चित्त-मन) की तीन अवस्थाएँ हैं, इस प्रकार वे उसके अतर्गत हैं। इन पांच स्कंधों को नाम-रूप भी कहते हैं। रूप महाधातुओं को कहते हैं और नाम विज्ञान (चित्त) को। चार महाधातु के प्रत्यय=कारण से जो रूप उत्पन्न होता है, उसे रूप-उपादान-स्कंध कहते हैं। चार महाभूत हैं-
(1) पृथ्वी-धातु, (2) जल-धातु वि) अग्नि-धातु तथा (4) वायु-धातु ।
प्रत्येक व्यक्ति के अंदर जो खुरदुरा और ठोस है यह पृथ्वी-घातु है जो जलीय, बहने वाला, तरल पदार्थ है वह जल-धातु है, जो अंदर अग्निमय है गर्मी है वह अग्नि-धातु है और
जो अंदर वायु-रूप है, वायु है, यह वायु-धातु है। महाभूतों से बनी इस काया (शरीर) मंे छः इंद्रियां हैं जैसे-चक्षु (=आँख), श्रौत्र (कान), घ्राण (नासिका, नाक), जिहवा (जीभ), काय
और मन। इनमें चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिहवा एवं काय बाहरी इंद्रियाँ हैं और मन (=चित्त) छठी भीतरी (आध्यात्मिक) इंद्रिय है-इन्हें ही छः आयतन (षड् आयतन) कहते हैं। इन छः
इंद्रियों के अपने-अपने विषय हैं जैसे चक्षु का रूप, श्रोत्र का शब्द, घ्राण का गंध, जिहवा का रस, काय का स्पर्श तथा मन का मन के विषय।
ये पांच स्कंध अपने आहार (खुराक) से उत्पन्न होते हुए दिखते हैं। इस आहार के निरोध (=रुक जाने, नष्ट) होने पर वे भी निरद्ध हो जाते हैं। भगवान बुद्ध कहते हैं-‘हे भिक्खुओ! ये (पंच-स्कंध) उत्पन्न हैं-इसे ठीक प्रकार से जानना सुदृष्ट-अच्छा दर्शन है।
भिक्खुओ! उत्पन्न प्राणियों की स्थिति के लिए, आगे उत्पन्न होने वालों (सत्वों) की सहयता (अनुग्रह) के लिए चार आहार हैं। कौन से चार? (पहला) स्थूल या सूक्ष्म कवलीकार
(कवल, कवल करके खाने योग्य आहार), (दूसरा) स्पर्श-आहार, (तीसरा) मन-संचेतना (मन के विषय का विचार करके तृप्ति लाभ करना), (चैथा) विज्ञान (चित्त-चेतना) इन
चारों आहारों का निदान (हेतु) है तृष्णा...ये तृष्णा से जन्मे हंै, ये सभूत है तृष्णा से।
भिक्खुओ! ... तृष्णा का निदान है वेदना। वेदना का निदान (हेतु) है स्पर्श। स्पर्श का निदान है षड़्-आयतन। षड़्-आयतन का निदान है नाम-रुप। नाम-रूप का निदान है विज्ञान (=चित्त=मन) । विज्ञान का निदान है संस्कार...संस्कार का निदान है अविद्या (अज्ञान रूप, आस्रव, मल)।
नाम तथा रूप के योग से व्यक्ति की उत्पत्ति संभव है । हमारे पुराने अनुभवी योगियों ने कहा भी है-
यमकं नामरूपंच, उभो उष्ट्रगेतमनिरिसता ।
एकस्मिं भिज्जमानिस्मिं, उभो भिज्जतिपध्यया ।
अर्थात नाम और रुप दोनों जोडे अन्योन्याश्रित हैं-एक के नष्ट होने पर दोनांे के प्रत्यय नष्ट हो जाते हैं ।
इस शरीर में इन पाँच स्कंधों के अतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है जो नित्य ध्रुव तथा अपरिवर्तनशील हो । पंचस्कंध भी परिवर्तनशील, नाशवान अनित्य, दुख और अनात्म हैं। ये आश्वासन के योग्य नहीं हैं । न जाने कब ये नष्ट हो जाएँ । महायोगी तथागत के समय वजिरा नाम की योगिनी (भिक्खुनी) ने भी यहीं बात एक गाथा ने इस प्रकार कही थी-
यथाहि अड्गसंभारा होति सदो रथो इति ।
एवं खधेसु संतेसु होति सत्तोति सम्मुति । ।
अर्थात जैसे रथागों (रथ के अंगों) के मेल से रथ शब्द होता है, ऐसे ही स्कंधों के होने पर ही सत्व (प्राणी) है-यह प्रज्ञप्ति होती हैं।
हमने जान लिया कि हम क्या हैं । यथार्थ में पांच स्कंध और उनसे बनी हमारी काया (शरीर) अनित्य है और यह निरंतर परिवर्तित हो रही है । ये सब अणुओं का समूह है जो
अनित्य है । इस अनित्यता, परिवर्तन को देखने और जानने के लिए अंतर्मुखी होना होगा, इसके लिए अर्त्तदृष्टि की आवश्यकता होगी । ध्यान-साधना (विपस्सना) द्वारा ही हम इस परिवर्तन को अंतर्मुखी होकर देख सकते हैं । तब हमारा रारीर इन्हीं शक्ति समूह-प्रकंपनों के निरंतर परिवर्तनशील होते रहने की और उनकी अनित्यता की स्वयं अनुभुति कर लेता है।
हमारा शरीर और अन्य प्राणियों का शरीर यर्थाथ में एक जाल में तरंगों से बंधे हुए हैं और पृथक नहीं हैं। पांच स्कंध इंद्रियों के माध्यम से अलग-अलग अपनी-अपनी क्रिया
(कृत्य) करते हैं, किन्तु फिर भी वे परस्पर संबद्ध हैं और एक दूसरे पर निर्भर हैं । पदार्थ, वस्तु रूप आदि अलग-अलग प्रतीत होते हैं। होने वाली घटनाएँ अलग-अलग जान पड़ती हैं, किन्तु वास्तव में वे सभी एक जाल में बंधी हुई हैं, सभी एक है पृथक-पृथक कुछ नहीं है।
भगवान बुद्ध ने अब से लगभग 2550 वर्ष पूर्व अपने ज्ञानचक्षु द्वारा अतर्मुखी एवं समाधि द्धारा परमाणुओं के विभाजन को देखा था और उन्होंने तो सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंतिम लधु काण भी
पाया जिसका और आगे विभाजन हो पाना संभव नहीं था। भगवान ने इस अंतिम लघुकण का नाम कलाप रखा। इस कलाप को भी उन्होंने तरंग-समूह मात्र ही पाया और यह तरंग-समूह पृथ्वी-धातु जल-धातु वायु-धातु और अग्नि-धातु और इनके प्रत्येक का गुणधर्म और उनका समुच्चय देखा । इसको भगवान ने अष्टकलाप कहा । हमारा यह भौतिक जगत इन अष्टकलापों का ही समूह मात्र है जो जाल रूप में बंधे हुए हैं और अलग-अलग नहीं हो सकते। भगवान ने इसको स्वयं के साक्षात्कार से अनुभव किया । इसी प्रकार भगवान ने देखा कि मन से जो विचार, जो विकार उठते हैं, वे भी तरंगें ही तरंगें हैं, इन तरंगों में पृथ्वी, जल, वायु अग्नि इन चार महाभूतों का ही कम अधिक प्रभाव पाया जाता है 1 चित्त की ये तरंगे रूप की तरंगों परिवर्तन होती रहती हैं और रूप की तरंगें मन की तरंगों को बदलती रहती हैं। रूप की तरंगों से मन की तरंगें एक क्षण में सतरह गुना अधिक गति से उदय अस्त होती रहती हैं ये भी भगवान ने पाया। इस प्रकार भगवान एक महायोगी होने के साथ-साथ एक महान वैज्ञानिक भी थे।
भगवान ने बताया कि विपस्सना का सम्यक (ठीक) अभ्यास करने वाला प्रत्येक व्यक्ति स्वयं उसकी अनुभूति कर सकता है। अपने भीतर हो रहे अविरल परिवर्तनों की तरंगों के अविरत होने वाले प्रकंपन-प्रवाह की, इनको निरंतर हो रहे उदय-अस्त की अनुभूति वह स्वयं प्रत्यक्ष कर सकता है और यही अनित्यता का साक्षात्कार है। अंतिम सत्य तो तरंगे ही तरंगे मात्र हैं, सभी एक जाल में गूंथा हुआ है बंधा हुआ है। संसार दुख से भरा है जिसका अनुभव हम सभी निरंतर अपने जीवन में करते हैं। इस दुख से छुटकारा पाना ही हम सभी का लक्ष्य है संसार के समस्त प्राणियों को दुख से मुक्त करने का मार्ग खोजने के लिए ही भगवान ने सिद्धार्थ के रूप में महाभिनिष्क्रमण (महान गृहत्याग) किया था। अंत में बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे वज्रासन में बैठकर अपनी गहन ध्यान-साधना के बल पर सिद्धार्थ गौतम में सम्यक संबोधि को प्राप्त किया और वे सिद्धार्थ से बुद्ध हो गए। भगवान ने स्वयं कहा-भिक्खुओ! तथागत ने संसार का पूरा ज्ञान प्राप्त कर लिया है। संसार से तथागत अनासक्त हैं। भिक्खुओं! संसार की उत्पत्ति का तथागत ने पूरा ज्ञान प्राप्त कर लिया है। संसार की उत्पत्ति तथागत के लिए नहीं रही।
भिक्खुओ! स्ंसार के दुख-निरोध का तथागत ने पूरा ज्ञान प्राप्त कर लिया है। संसार के दुख निरोध से तथागत का साक्षात्कार किया हुआ है। संसार के दुख निरोध की ओर ले जाने वाले मार्ग का तथागत ने पूरा ज्ञान प्राप्त किया है, संसार के दुुख निरोध की ओर ले जाने वाला मार्ग तथागत का विकसित किया हुआ है।...
The article is republished from the book Vipassana written by Acharya Jugal Kishore Baudh with permission from the publisher, Samyak Prakashan.
मानव और कुछ नहीं, केवल पांच स्कंधों का अनित्य संघात है। सरल रूप में कहें तो मनुष्य पांच स्कंधों का एक परिवर्तनशील (अनित्य) समूह है। ये स्कंध हैं-रूप, वेदना, संज्ञा संस्कार तथा विज्ञान। स्कंधो में वेदना, संज्ञा और संस्कार रूप के संबंध में विज्ञान (-चित्त-मन) की तीन अवस्थाएँ हैं, इस प्रकार वे उसके अतर्गत हैं। इन पांच स्कंधों को नाम-रूप भी कहते हैं। रूप महाधातुओं को कहते हैं और नाम विज्ञान (चित्त) को। चार महाधातु के प्रत्यय=कारण से जो रूप उत्पन्न होता है, उसे रूप-उपादान-स्कंध कहते हैं। चार महाभूत हैं-
(1) पृथ्वी-धातु, (2) जल-धातु वि) अग्नि-धातु तथा (4) वायु-धातु ।
प्रत्येक व्यक्ति के अंदर जो खुरदुरा और ठोस है यह पृथ्वी-घातु है जो जलीय, बहने वाला, तरल पदार्थ है वह जल-धातु है, जो अंदर अग्निमय है गर्मी है वह अग्नि-धातु है और
जो अंदर वायु-रूप है, वायु है, यह वायु-धातु है। महाभूतों से बनी इस काया (शरीर) मंे छः इंद्रियां हैं जैसे-चक्षु (=आँख), श्रौत्र (कान), घ्राण (नासिका, नाक), जिहवा (जीभ), काय
और मन। इनमें चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिहवा एवं काय बाहरी इंद्रियाँ हैं और मन (=चित्त) छठी भीतरी (आध्यात्मिक) इंद्रिय है-इन्हें ही छः आयतन (षड् आयतन) कहते हैं। इन छः
इंद्रियों के अपने-अपने विषय हैं जैसे चक्षु का रूप, श्रोत्र का शब्द, घ्राण का गंध, जिहवा का रस, काय का स्पर्श तथा मन का मन के विषय।
ये पांच स्कंध अपने आहार (खुराक) से उत्पन्न होते हुए दिखते हैं। इस आहार के निरोध (=रुक जाने, नष्ट) होने पर वे भी निरद्ध हो जाते हैं। भगवान बुद्ध कहते हैं-‘हे भिक्खुओ! ये (पंच-स्कंध) उत्पन्न हैं-इसे ठीक प्रकार से जानना सुदृष्ट-अच्छा दर्शन है।
भिक्खुओ! उत्पन्न प्राणियों की स्थिति के लिए, आगे उत्पन्न होने वालों (सत्वों) की सहयता (अनुग्रह) के लिए चार आहार हैं। कौन से चार? (पहला) स्थूल या सूक्ष्म कवलीकार
(कवल, कवल करके खाने योग्य आहार), (दूसरा) स्पर्श-आहार, (तीसरा) मन-संचेतना (मन के विषय का विचार करके तृप्ति लाभ करना), (चैथा) विज्ञान (चित्त-चेतना) इन
चारों आहारों का निदान (हेतु) है तृष्णा...ये तृष्णा से जन्मे हंै, ये सभूत है तृष्णा से।
भिक्खुओ! ... तृष्णा का निदान है वेदना। वेदना का निदान (हेतु) है स्पर्श। स्पर्श का निदान है षड़्-आयतन। षड़्-आयतन का निदान है नाम-रुप। नाम-रूप का निदान है विज्ञान (=चित्त=मन) । विज्ञान का निदान है संस्कार...संस्कार का निदान है अविद्या (अज्ञान रूप, आस्रव, मल)।
नाम तथा रूप के योग से व्यक्ति की उत्पत्ति संभव है । हमारे पुराने अनुभवी योगियों ने कहा भी है-
यमकं नामरूपंच, उभो उष्ट्रगेतमनिरिसता ।
एकस्मिं भिज्जमानिस्मिं, उभो भिज्जतिपध्यया ।
अर्थात नाम और रुप दोनों जोडे अन्योन्याश्रित हैं-एक के नष्ट होने पर दोनांे के प्रत्यय नष्ट हो जाते हैं ।
इस शरीर में इन पाँच स्कंधों के अतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है जो नित्य ध्रुव तथा अपरिवर्तनशील हो । पंचस्कंध भी परिवर्तनशील, नाशवान अनित्य, दुख और अनात्म हैं। ये आश्वासन के योग्य नहीं हैं । न जाने कब ये नष्ट हो जाएँ । महायोगी तथागत के समय वजिरा नाम की योगिनी (भिक्खुनी) ने भी यहीं बात एक गाथा ने इस प्रकार कही थी-
यथाहि अड्गसंभारा होति सदो रथो इति ।
एवं खधेसु संतेसु होति सत्तोति सम्मुति । ।
अर्थात जैसे रथागों (रथ के अंगों) के मेल से रथ शब्द होता है, ऐसे ही स्कंधों के होने पर ही सत्व (प्राणी) है-यह प्रज्ञप्ति होती हैं।
हमने जान लिया कि हम क्या हैं । यथार्थ में पांच स्कंध और उनसे बनी हमारी काया (शरीर) अनित्य है और यह निरंतर परिवर्तित हो रही है । ये सब अणुओं का समूह है जो
अनित्य है । इस अनित्यता, परिवर्तन को देखने और जानने के लिए अंतर्मुखी होना होगा, इसके लिए अर्त्तदृष्टि की आवश्यकता होगी । ध्यान-साधना (विपस्सना) द्वारा ही हम इस परिवर्तन को अंतर्मुखी होकर देख सकते हैं । तब हमारा रारीर इन्हीं शक्ति समूह-प्रकंपनों के निरंतर परिवर्तनशील होते रहने की और उनकी अनित्यता की स्वयं अनुभुति कर लेता है।
हमारा शरीर और अन्य प्राणियों का शरीर यर्थाथ में एक जाल में तरंगों से बंधे हुए हैं और पृथक नहीं हैं। पांच स्कंध इंद्रियों के माध्यम से अलग-अलग अपनी-अपनी क्रिया
(कृत्य) करते हैं, किन्तु फिर भी वे परस्पर संबद्ध हैं और एक दूसरे पर निर्भर हैं । पदार्थ, वस्तु रूप आदि अलग-अलग प्रतीत होते हैं। होने वाली घटनाएँ अलग-अलग जान पड़ती हैं, किन्तु वास्तव में वे सभी एक जाल में बंधी हुई हैं, सभी एक है पृथक-पृथक कुछ नहीं है।
भगवान बुद्ध ने अब से लगभग 2550 वर्ष पूर्व अपने ज्ञानचक्षु द्वारा अतर्मुखी एवं समाधि द्धारा परमाणुओं के विभाजन को देखा था और उन्होंने तो सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंतिम लधु काण भी
पाया जिसका और आगे विभाजन हो पाना संभव नहीं था। भगवान ने इस अंतिम लघुकण का नाम कलाप रखा। इस कलाप को भी उन्होंने तरंग-समूह मात्र ही पाया और यह तरंग-समूह पृथ्वी-धातु जल-धातु वायु-धातु और अग्नि-धातु और इनके प्रत्येक का गुणधर्म और उनका समुच्चय देखा । इसको भगवान ने अष्टकलाप कहा । हमारा यह भौतिक जगत इन अष्टकलापों का ही समूह मात्र है जो जाल रूप में बंधे हुए हैं और अलग-अलग नहीं हो सकते। भगवान ने इसको स्वयं के साक्षात्कार से अनुभव किया । इसी प्रकार भगवान ने देखा कि मन से जो विचार, जो विकार उठते हैं, वे भी तरंगें ही तरंगें हैं, इन तरंगों में पृथ्वी, जल, वायु अग्नि इन चार महाभूतों का ही कम अधिक प्रभाव पाया जाता है 1 चित्त की ये तरंगे रूप की तरंगों परिवर्तन होती रहती हैं और रूप की तरंगें मन की तरंगों को बदलती रहती हैं। रूप की तरंगों से मन की तरंगें एक क्षण में सतरह गुना अधिक गति से उदय अस्त होती रहती हैं ये भी भगवान ने पाया। इस प्रकार भगवान एक महायोगी होने के साथ-साथ एक महान वैज्ञानिक भी थे।
भगवान ने बताया कि विपस्सना का सम्यक (ठीक) अभ्यास करने वाला प्रत्येक व्यक्ति स्वयं उसकी अनुभूति कर सकता है। अपने भीतर हो रहे अविरल परिवर्तनों की तरंगों के अविरत होने वाले प्रकंपन-प्रवाह की, इनको निरंतर हो रहे उदय-अस्त की अनुभूति वह स्वयं प्रत्यक्ष कर सकता है और यही अनित्यता का साक्षात्कार है। अंतिम सत्य तो तरंगे ही तरंगे मात्र हैं, सभी एक जाल में गूंथा हुआ है बंधा हुआ है। संसार दुख से भरा है जिसका अनुभव हम सभी निरंतर अपने जीवन में करते हैं। इस दुख से छुटकारा पाना ही हम सभी का लक्ष्य है संसार के समस्त प्राणियों को दुख से मुक्त करने का मार्ग खोजने के लिए ही भगवान ने सिद्धार्थ के रूप में महाभिनिष्क्रमण (महान गृहत्याग) किया था। अंत में बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे वज्रासन में बैठकर अपनी गहन ध्यान-साधना के बल पर सिद्धार्थ गौतम में सम्यक संबोधि को प्राप्त किया और वे सिद्धार्थ से बुद्ध हो गए। भगवान ने स्वयं कहा-भिक्खुओ! तथागत ने संसार का पूरा ज्ञान प्राप्त कर लिया है। संसार से तथागत अनासक्त हैं। भिक्खुओं! संसार की उत्पत्ति का तथागत ने पूरा ज्ञान प्राप्त कर लिया है। संसार की उत्पत्ति तथागत के लिए नहीं रही।
भिक्खुओ! स्ंसार के दुख-निरोध का तथागत ने पूरा ज्ञान प्राप्त कर लिया है। संसार के दुख निरोध से तथागत का साक्षात्कार किया हुआ है। संसार के दुख निरोध की ओर ले जाने वाले मार्ग का तथागत ने पूरा ज्ञान प्राप्त किया है, संसार के दुुख निरोध की ओर ले जाने वाला मार्ग तथागत का विकसित किया हुआ है।...
The article is republished from the book Vipassana written by Acharya Jugal Kishore Baudh with permission from the publisher, Samyak Prakashan.
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